देहरादून| उत्तराखंड 9 नवंबर को अपना 24 वां स्थापना दिवस का जश्न मनाने जा रहा है. इन 24 वर्षों में प्रदेश ने कई चुनौतियों का सामना करते हुए विकास के नए आयाम छुए हैं. लेकिन, इन सभी उपलब्धियों के बीच एक समस्या है, जो अब भी राज्य के भविष्य पर सवालिया निशान खड़े कर रही है. वह है, उत्तराखंड के गांवों से हो रहा पलायन. खाली होते गांव और घटती आबादी,थमने का नाम नहीं ले रही है. विकास के साथ-साथ चल रही एक गंभीर चुनौती के रूप में सामने खड़ी हो रही है. क्या इन 24 सालों में इस संकट का कोई स्थायी समाधान नहीं निकल पाया है. आइए समझते हैं आखिर देवभूमि उत्तराखंड में पलायन एक बड़ी समस्या क्यों बनकर उभरी.
उत्तराखंड ने अपने 24 वर्षों के सफर में कई ऐसे महत्वपूर्ण कार्य किए हैं, जिन्होंने राज्य में मूलभूत सुविधाओं के ढांचागत विकास को मजबूत किया है. लेकिन जब हम इस विकास की रफ्तार पर नज़र डालते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या इतने वर्षों का समय इन कार्यों के लिए बहुत ज्यादा नहीं है? राज्य गठन के बाद से ही पलायन उत्तराखंड का सबसे बड़ा और जटिल मुद्दा रहा है, जिसका समाधान अब तक स्पष्ट रूप से नजर नहीं आया. हालांकि विगत वर्षों में पलायन को रोकने के लिए सरकारों ने कई प्रयास किए है. उन्हीं में से एक है- एक पलायन निवारण आयोग का गठन. त्रिवेंद्र रावत जब मुख्यमंत्री थे तब इस आयोग का गठन किया था. लेकिन मौजूदा समय में किसी भी सरकार के लिए पलायन को रोकना सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है.
2.85 लाख घरों में लटके ताले
2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि पलायन के चलते उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों में 2.85 लाख घरों में ताले लटके हैं. यही नहीं, 1,034 गांव घोस्ट विलेज घोषित किए जा चुके हैं. यानी इन गांवों में कोई नहीं रहता और वहां के घर खंडहर में तब्दील हो गए हैं. करीब 2000 गांव ऐसे हैं, जिनके बंद घरों के दरवाजे पूजा अथवा किसी खास मौके पर ही खुलते हैं. गांवों से पलायन का असर असर खेती पर भी पड़ रहा है. सरकार भी मानती है कि 2001 से अब तक 70 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बंजर में तब्दील हो गई है. हालांकि, गैर सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो बंजर कृषि भूमि का रकबा एक लाख हेक्टेयर से अधिक हो सकता है.