आखिर हर साल गर्मियों में उत्तराखंड के जंगलों में क्यों लगती है भीषण आग! वन विभाग की कार्यशैली पर उठ रहे सवाल

नैनीताल| उत्तराखंड के जंगलों में गर्मियों में आग लगने से हर साल बेशकीमती वन संपदा राख हो जाती है. आग बुझाने के नाम पर हर साल करोड़ों रुपए बहा दिए जाते हैं, लेकिन न जंगल बच पाते हैं और न आग बुझ पाती है. अंतत: आसमानी बारिश ही जंगलों की आग को शांत कर पाती है.

उत्तराखंड में जंगलों की आग इतनी भीषण हो चुकी है कि नैनीताल में एयरफोर्स की एमआई-17 हेलीकॉप्टर की मदद लेनी पड़ी तो रविवार को एनडीआरएफ की 41 सदस्यीय टुकड़ी भी मैदान में उतार दी गई. रविवार तक 606 घटनाओं में साढे़ सात सौ से अधिक हेक्टेयर एरिया आग की चपेट में आ चुका था.

सवाल उठता है कि आखिर जंबो जेट फौज वाले वन विभाग जंगल बचाने में क्यों असफल हो जाता है. पूर्व वन मंत्री नवप्रभात का कहना है कि जंगलों की आग हेलीकाप्टर से नहीं बुझती. फायर लाइन काटने और फायर कंट्रोल बर्निंग जैंसे ब्रिटिशकालीन उपाय ही इसमें कारगर हो सकते हैं, जिससे वन विभाग ने करीब करीब किनारा कर लिया है.

ये है वजह
गर्मी के दिनों में किसी भी जंगल में आग का लगना कोई बहुत आश्चर्यजनक बात नहीं है, लेकिन, कुछ राज्यों में ये आग बेकाबू हो जाती है. उत्तराखण्ड उनमें से एक है. इन दिनों राज्य के जंगलों में आग लगने की घटना ने भयावह रूप ले लिया है. आखिर इसपर काबू क्यों नहीं पाया जा सका है? इसकी बड़ी वजह है कि जंगल की प्रकृति. उत्तराखण्ड के जंगलों में चीड़ के पेड़ बहुतायत में हैं. अग्रेजों ने इन्हें तारकोल बनाने के लिए पूरे राज्य में लगाया था. इनकी जितनी उपयोगिता है, उतना ही इनसे नुकसान. चीड़ के पेड़ में लीसा नामक एक तरल पदार्थ निकलता है. इनकी पत्तियों में भी तेल का अंश बहुत ज्यादा होता है. इन्हें स्थानीय भाषा में पीरूल बोलते हैं. पत्तियों में तेल की मात्रा ज्यादा होने के कारण न सिर्फ ये जल्दी आग पकड़ती हैं, बल्कि आग लगने की सूरत में ये भयावह भी होती है. पत्तियों से उठी आग पेड़ों को भी अपनी चपेट में ले लेती है. गर्मी के दिनों में सूखा मौसम होने के कारण ये समस्या और भी विकराल हो जाती है. अब जब तक बारिश नहीं होगी तब तक सारे प्रयास अधूरे ही साबित होंगे. दुर्गम और पहाड़ी रास्ते की वजह से आग बुझाने के प्रयास और भी कठिन हो जाते हैं. पर्यावरणविद पूरण चंद्र तिवारी कहते हैं कि आग लगने की वजह जो है उसमें सबसे प्रमुख ये है कि पहले जो ग्रामिनिओं को अधिकार मिले थे उसे छीन लिए गए. जिसकी वजह से गांव वालों का सहयोग बहुत कम हो गया है. दूसरी वजह यह है कि आग बुझाने का जो पुराना सिस्टम है वही फारेस्ट विभाग अपना रहा है. उन्होंने कहा कि तीसरी वजह ये है कि लोग भी आग लगाने में सहयोग कर रहे हैं. अपने आप ये आग नहीं लग रही.

वन मंत्री ने कही ये बात
उधर, वन मंत्री सुबोध उनियाल का कहना है कि हमारा पहला ध्यान जनता को जंगलों से जोड़ना और आग लगने पर रिस्पॉस टाइम कम से कम करने पर है. इसके लिए विभाग अब कई दूरगामी योजनाओं पर काम कर रहा है. वन विभाग अपनी पॉलिसियों को पब्लिक फ्रेंडली करने पर जोर दे रहा है. 11 हजार से अधिक वन पंचायत समितियों को अब वन पंचायत की जमीन पर कृषिकरण की छूट दी जा रही है. हर डिवीजन में ईको डेस्टेनेशन साइट बनाई जा रही है, जिसका संचालन स्थानीय लोगों की कमेटियां ही करेंगी. इसके अलावा आग की दृष्टि से संवेदनशील जंगलों में रेन वॉटर हार्वेस्टिंग टैंक बनाने की योजना है



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