कुमाऊं अल्‍मोड़ा

इगास 2023: क्या होता है इगास! क्यों पहाड़ों में मनाते हैं बूढ़ी दिवाली

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पहाड़ में बग्वाल दीपावली के ठीक 11 दिन बाद ईगास मनाने की परंपरा है. दरअसल ज्योति पर्व दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा को पहुंचता है, इसलिए पर्वों की इस शृंखला को ईगास-बग्वाल नाम दिया गया. इस मौके पर विभिन्न संस्थाओं की ओर से सांस्कृति कार्यक्रम का आयोजन करते हैं. इस साल इगास 23 नवम्बर मनाई जाएगी

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार श्रीराम के वनवास से अयोध्या लौटने पर लोगों ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीये जलाकर उनका स्वागत किया था. लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली.

इसीलिए ग्रामीणों ने खुशी जाहिर करते हुए एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया. दूसरी मान्यता के अनुसार दीपावली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी. दीपावली के ठीक ग्यारहवें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी. युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दीपावली मनाई थी.

हरिबोधनी एकादशी यानी ईगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं. इस दिन विष्णु की पूजा का विधान है. देखा जाए तो उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है. देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की. इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया. इसे ही ईगास-बग्वाल कहा जाता है.

ईगास-बग्वाल के दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है. खासकर बड़ी बग्वाल के दिन यह मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है. बग्वाल वाले दिन भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है. भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार या रस्सी से तैयार किया जाता है.

रस्सी में चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गांठ बांधी जाती है. जिसके बाद गांव के ऊंचे स्थान पर पहुंच कर लोग भैलो को आग लगाते हैं. इसे खेलने वाले रस्सी को पकड़कर सावधानीपूर्वक उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं. इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है. मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के कष्टों को दूर करने के साथ सुख-समृद्धि देती है. भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परंपरा भी है.


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