मकर संक्रांति के मौके पर 15 जनवरी से शुरू होने वाला बागेश्वर का मशहूर उत्तरायणी मेला सांस्कृतिक के साथ-साथ ऐतिहासिक धरोहर के रूप में भी मशहूर है. यहां के उत्तरायणी मेले को लेकर एक खास कथा भी प्रचलित है.
उत्तराखंड में काफी लंबे समय तक चंदवंशी राजाओं का राज रहा. चंदवंशी राजा कल्याण सिंह की कोई संतान नहीं थी. उन्हें बताया गया कि बागनाथ के दरबार में मन्नत मांगने से उन्हें निश्चित ही संतान की प्राप्त होगी. राजा ने ऐसा ही किया और फिर उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, उन्होंने अपने बेटे का नाम निर्भय चन्द्र रखा गया.
पुत्र प्राप्ति से बहुत प्रसन्न रानी ने बच्चे को बहुमूल्य मोती की माला पहनाई. माला पहनकर बेटा बेहद प्रसन्न रहता था. एक बार जब बालक जिद करने लगा तो रानी ने उसे डराने के लिए उसकी माला कौवे को देने की धमकी दे दी. अब बच्चा एक और जिद करने लगा कि कौवे को बुलाओ. रानी ने बच्चे को मनाने के लिए कौवे को बुलाना शुरू कर दिया.
राजा का बेटा होने के नाते बच्चा तरह-तरह के पकवान और मिठाइयों का भरपूर लुत्फ लेता था. पकवान और मिठाइयां खाने के बाद बचा-खुचा खाना कौओं को भी मिल जाता था. इसलिए कौवे बालक के इर्द-गिर्द घूमते रहते थे और इस तरह राजा के बेटे की कौओं से दोस्ती हो गई.
राजा का एक मंत्री था, जिसका नाम घुघुती था. राजा के नि:संतान होने के कारण घुघती राजा के बाद राज्य का स्वामित्व पाने के सपने देखा करता था, लेकिन निर्भय चन्द्र के कारण उसकी इच्छा फलीभूत न हो सकी. इसी कारण वह निर्भय चन्द्र की हत्या की साजिशें रचने लगा और एक बार बालक को चुपचाप से घने जंगल में ले गया.
कौओं ने जब आंगन में अपने दोस्त राजा के बेटे को नहीं देखा तो आकाश में उड़कर इधर-उधर उसे ढूंढ़ने लगे. अचानक उनकी नजर मंत्री पर पड़ी, जो बालक की हत्या की तैयारी कर रहा था. कौओं ने कांव-कांव का शोर करके बालक के गले की माला अपनी चोंच में उठाकर राजमहल के प्रांगण में डाल दी. बच्चे की टूटी माला देखकर सब आशंकित हो गए तो मंत्री को बुलाया गया, लेकिन मंत्री कहीं नहीं मिला.
राजा को किसी तरह साजिश की भनक लग गई और उन्होंने कौओं के पीछे-पीछे सैनिक भेज दिए. वहां जाकर उन्होंने देखा कि हजारों कौओं ने मंत्री घुघुती को चोंच मार-मारकर बुरी तरह घायल कर दिया था और बच्चा कौओं के साथ खेलने में मगन था. निर्भय चंद्र और मंत्री को लेकर सैनिक लौट आए.
उत्तरायणी मेला बागेश्वर
सारे कौवे भी आकर राजदरबार की मीनार पर बैठ गए. मंत्री को मौत की सजा सुनाई गई और उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर कौओं को खिला दिए गए. लेकिन जब इससे कौवों का पेट नहीं भरा तो निर्भय चंद्र की प्राण रक्षा के उपहारस्वरूप विभिन्न प्रकार के पकवान बनाकर उन्हें खिलाए गए.
इस घटना से ही हर साल घुघुती माला बनाकर कौओं को खिलाने की परम्परा शुरू हुई. यह संयोग ही था कि उस दिन मकर संक्रांति थी, इसीलिए उत्तरायणी मेले का मकर संक्रांति के दिन शुरू होने का खासा महत्त्व है.
मान्यता के अनुसार, संक्रांति की सुबह जल्दी उठकर बच्चों को तिलक लगाकर, उनके गले में घुघुती की माला पहनाकर ‘काले कौआ काले, घुघती माला खाले’ कहने के लिए छत-आंगन या घर के दरवाजे पर खड़ा कर दिया जाता है. यह त्योहार बच्चों का ही त्योहार माना जाता है.
बच्चे इस दिन बहुत खुश रहते हैं. अपनी माला में गछे, गेहूं के आटे में गुड़ मिलाकर घी या तेल में पके खजूरों को घुघुती का प्रतीक मानकर चिल्ला-चिल्ला कर गाते हैं – ‘काले कौआ काले, घुघुती माला खाले.
उत्तरायणी: ‘काले कौआ काले, घुघुती माला खाले’ को लेकर ये कहानी सुनी है आपने?
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