कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने अपने परिवार से अलग कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की बात कहकर, फिर से वही बहस छेड़ दी है, जिसपर पिछले लोकसभा चुनाव के बाद लंबे वक्त तक पार्टी में घमासान मचा रहा था. तब राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ते हुए यही कहा था कि कोई प्रियंका का नाम आगे न बढ़ाए. लेकिन, हफ्तों बीत गए और कोई सर्वमान्य नेता नहीं मिला तो हारकर बुजुर्ग सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष का जिम्मा संभालना पड़ा और शायद यह सबसे पुरानी पार्टी होने का दावा करने वाले दल के लिए सबसे लंबे वक्त के अंतरिम अध्यक्ष का एक रिकॉर्ड भी बना चुका है.
बहरहाल, पार्टी में बुजुर्ग और युवा दोनों खेमों के बीच से कुछ नामों पर चर्चा हो सकती है, लेकिन यह सवाल बरकरार ही रहेगा कि क्या गांधी परिवार से अलग कोई नेता सर्वमान्य होगा या फिर उसका भी हाल ‘मनमोहन सिंह’ वाला ही होगा.
मौजूदा समय में अगर अंदाजा लगाएं तो गांधी परिवार से अलग कांग्रेस का ऐसा कौन नेता है, जो परिवार के प्रति वफादार रहने की भी शर्तें पूरी करता हो और जो पूर्णकालिक अध्यक्ष की जिम्मेदारी भी निभा सकता है. ऐसे में एक नाम राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का लिया जा सकता है. उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी संगठन क्षमता के दम पर गुजरात जैसे राज्य में भी कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन सुनिश्चित किया था. लेकिन, सवाल है कि क्या वह मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़कर कांग्रेस अध्यक्ष बनना पसंद करेंगे? परिवार के दिमाग में एक और नाम हो सकता है, जिसपर उसे पूरा भरोसा है- मल्लिकार्जुन खड़गे. वह राहुल की इच्छा के मुताबिक आक्रामक भी हो जाते हैं और वरिष्ठों के अनुसार अनुभवी भी हैं. लेकिन, क्या वह पार्टी की आवश्यकतानुसार उत्तर भारत में पार्टी को मजबूत कर सकेंगे ?
एक और नाम हो सकता है गुलाम नबी आजाद का. उनमें संगठन क्षमता भी है और प्रशासनिक अनुभव भी. लेकिन, जिस दौर में पार्टी का एक वर्ग हिंदुत्व की ओर मुड़ने की ताक में है, आजाद की नियुक्ति के लिए परिवार तैयार होगा? अब अगर पार्टी किसी युवा को आगे बढ़ाने की सोचती है तो सचिन पायलट भी एक नाम हो सकते हैं. इससे उन्हें गहलोत से दूर भी किया जा सकता है और उनके जोश का फायदा भी राष्ट्रीय स्तर पर उठाया जा सकता है.
लेकिन, एक महीने तक राजस्थान में जो ‘सीरियल’ बना है, उसके बाद फिलहाल पार्टी उन्हें इस पद पर देखना पसंद करेगी कहना मुश्किल है. ऊपर से ये भी कि क्या बुजुर्गों की लॉबी उनके नाम पर तैयार होगी? ऐसे में हो सकता है कि अगर गैर-कांग्रेसी अध्यक्ष की बात परिवार ने तय करके ही आगे बढ़ाई है तो कोई ना कोई ‘मनमोहन सिंह’ दिमाग में जरूर होगा? लेकिन, पार्टी को यह भी ध्यान रखना होगा कि यूपीए में पीएम की गद्दी हिलाने वालों में भी अंदर के ही कुछ नेताओं का नाम आता रहा है.
अगर मान लिया जाए कि गांधी परिवार किसी तरह से आंतरिक चुनाव के जरिए या मनोनित करवाकर किसी नेता को पूर्णकालिक अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंप देता है, जैसे मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया गया था तो क्या उसके लिए कांग्रेस में भाजपा के मुकाबले के लिए स्वतंत्र होकर काम करना मुमकिन होगा.
मनमोहन की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को आजतक ‘रिमोट कंट्रोल’ वाली सरकार के नाम से याद किया जाता है. मनमोहन सिंह के लिए 10 साल का कार्यकाल निकाल ले जाना आसान नहीं था. उन्हें अपने साथियों से ही विरोध का सामना करना पड़ रहा था. उनके कद के दूसरे कांग्रेसी मंत्रियों में एक आम भावना यह थी कि उनकी क्यों सुनें? नतीजा ये था कि सबको 10 जनपथ तक की दौड़ लगानी पड़ती थी.
मतलब, अगर पार्टी किसी तरह से गांधी परिवार से अलग अध्यक्ष खोज भी लेती है तो इसकी क्या गारंटी है कि उसे मनमोहन सिंह वाली परेशानियां नहीं झेलनी पड़ेंगी. यह भी तय है कि गांधी परिवार से अलग कोई भी नेता पार्टी में सभी लोगों को स्वीकार नहीं होगा. मतलब, बात यही होगी कि हर बात के लिए नेताओं का 10 जनपथ (या फिर राहुल-प्रियंका के पास) पर शिकायतें लेकर पहुंचने का सिलसिला शुरू हो जाएगा.
यही नहीं, पार्टी में जिस भी नेता को अध्यक्ष बनाया जाएगा, उसके लिए जरूरी है कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे को चुनौती दे सके. कांग्रेस के लिए इस वक्त सबसे बड़ी चुनौती तो यही है. वह किसी को खोज भी ले, लेकिन वह मोदी की शख्सियत के सामने टिक भी सके इसकी गारंटी कौन देगा?