बुझ गई ‘पहाड़ पर लालटेन’, नहीं रहे मंगलेश डबराल

मंगलेश डबराल नहीं रहे. 72 वर्ष की उम्र में एम्स में उन्होंने अंतिम सांस ली. वो लंबे समय से बीमार थे और गाजियाबाद में इलाज चल रहा था. बाद में उन्हें दिल्ली स्थिति एम्स भर्ती कराया गया. मंगलेश डबराल के निधन से हिंदी साहित्य को बड़ा झटका लगा बहै.

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने मंगलेश डबराल के निधन पर शोक व्यक्त किया है. उन्होंने मंगलेश डबराल के निधन को हिंदी साहित्य को एक बड़ी क्षति बताते हुए दिवंगत आत्मा की शांति व शोक संतप्त परिवार जनों को धैर्य प्रदान करने की ईश्वर से प्रार्थना की है.

परिवार और उनकी सहमति के बाद एम्स में भर्ती कराया गया था. भर्ती होने के बाद कुछ दिन तक उनकी तबीयत स्थिर बनी रही. बीच बीच में सुधार भी हुआ. लेकिन रविवार तबीयत खराब होने के बाद वेंटिलेटर पर रखा गया था. हालांकि उनके शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया. बुधवार शाम को डायलिसिस के लिए ले जाया जा रहा था कि तभी उनको दिल के दो दौरे पड़े.

टिहरी गढ़वाल जिले के काफलपानी गांव में जन्मे कवि और लेखक मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई 1948 को हुआ था. मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी कवियों में सबसे चर्चित नाम था. दिल्ली में पैट्रियट हिंदी, प्रतिपक्ष और आसपास में कुछ दिन काम करने के बाद मध्य प्रदेश चले गए. मध्य प्रदेश कला परिषद्, भारत भवन से प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिक पूर्वाग्रह में सहायक संपादक रहे. अमृत प्रभात में भी कुछ दिन नौकरी भी की थी.

मंगलेश डबराल ने अपने फेसबुक अकाउंट पर 23 नवंबर को बुखार का एक किस्सा साझा किया था. उन्होंने लिखा था, ‘बुखार की दुनिया भी बहुत अजीब है. वह यथार्थ से शुरू होती है और सीधे स्वप्न में चली जाती है. वह आपको इस तरह झपोडती है जैसे एक तीखी-तेज हवा आहिस्ते से पतझड़ में पेड़ के पत्तों को गिरा रही हो. वह पत्ते गिराती है और उनके गिरने का पता नहीं चलता.

जब भी बुखार आता है, मैं अपने बचपन में चला जाता हूं. हर बदलते मौसम के साथ बुखार भी बदलता था. बारिश है तो बुखार आ जाता था, धूप अपने साथ देह के बढ़े हुए तापमान को ले आती और जब बर्फ गिरती तो मां के मुंह से यह जरूर निकलता…अरे भाई, बर्फ गिरने लगी है, अब इसे जरूर बुखार आएगा.’

1967 के नक्सलबाड़ी आंदोलन ने कवियों की जिस पीढ़ी की रचना की उनमें मंगलेश डबराल अग्रिम पंक्ति में शुमार रहे. उन्होंने अमृत प्रभात, जनसत्ता, सहारा, प्रतिपक्ष और शुक्रवार में साहित्यिक पत्रकारिता भी की. उनके कविता संग्रहों में ‘पहाड़ पर लालटेन’, ‘घर का रास्ता’, ‘हम जो देखते हैं’, ‘मुझे दिखा एक मनुष्य’, ‘आवाज़ भी एक जगह है’, ‘नए युग में शत्रु’ और ‘कवि ने कहा’ शामिल हैं. इसके अलावा उन्होंने ‘लेखक की रोटी’, ‘कवि का अकेलापन’ जैसे गद्य संग्रह और ‘एक बार आयोवा’ यात्रा वृतांत भी लिखा.

विश्व साहित्य के कई बड़े नामों (बर्टोल्ट ब्रेष्ट, पाब्लो नेरूदा, अर्नेस्तो कार्देनल आदि) को उन्होंने हिंदी में अनूदित किया तो उनकी कविताओं का भी कई भाषाओं में अनुवाद हुआ. उन्हें साहित्य अकादमी, श्रीकांत वर्मा पुरस्कार, शमशेर वर्मा सम्मान, पहल सम्मान आदि सम्मान प्राप्त हुए.

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