आज 14 सितंबर है, बात होगी राजभाषा हिंदी की. जब-जब हम हिंदी भाषा की बात करते हैं तब मिठास और मधुरता का एहसास होता है. हमारे देश की पहचान दुनिया में एकता और अखंडता के रूप में जानी जाती है.
लेकिन सच्चाई यह है अभी तक भारत के कई राज्यों में 71 वर्ष के बाद भी हिंदी अपनी जड़े जमा नहीं पाई है, इसका कारण यह है कि दक्षिण भारत के राज्यों के राजनीतिक दलों की भूमिका राजभाषा को लेकर सकारात्मक नहीं रही है.
हम ज्यादा पीछे नहीं जाते हैं, पिछले माह अगस्त में ही तमिलनाडु की डीएमके की सांसद कनिमोझी ने हिंदी भाषा को लेकर देशभर में राजनीति गर्म कर दी थी. देश में 14 सितंबर को हर वर्ष विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है. हिंदी दिवस को लेकर बड़े बड़े आयोजन होते हैं. लेकिन अबकी बार कोरोना महामारी के वजह से कई कार्यक्रम आयोजित नहीं किए जाएंगे.
इस बार भी हिंदी दिवस पर हमारे नेता और अफसर इस भाषा को बढ़ावा देने के लिए बातें तो बड़ी-बड़ी करेंगे लेकिन हिंदी के विकास को लेकर धरातल पर नहीं ला पाते हैं. हिंदी दिवस के मौके पर हिंदी के प्रोत्साहन के लिए कई पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं, जैसे- राजभाषा कीर्ति पुरस्कार और राष्ट्रभाषा गौरव पुरस्कार.
कीर्ति पुरस्कार जहां ऐसे विभाग को दिया जाता है जिसने वर्ष भर हिंदी में कार्य को बढ़ावा दिया हो, वहीं राष्ट्रभाषा गौरव पुरस्कार तकनीकी-विज्ञान लेखन के लिए दिया जाता है.
हिंदी ने विश्व के कई देशों में अपना प्रभाव छोड़ा है लेकिन अपने देश में इसके साथ सौतेला व्यवहार होता रहा है. आइए आज हिंदी को लेकर चर्चा की जाए.
दक्षिण के राज्य और वोट बैंक की मजबूरी भी कम जिम्मेदार नहीं
14 सितंबर 1949 को जब हमारे देश में हिंदी राजभाषा का आधिकारिक दर्जा मिला था तब दक्षिण के राज्यों ने इसका खुल कर विरोध किया था.
तमिलनाडु के कई लोगों ने तो हिंदी राजभाषा को लागू किए जाने के विरोध में आत्महत्या तक कर डाली थी. तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने कभी भी हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया है बल्कि उल्टा हिंदी का विरोध करते ही रहे हैं.
वहां के राजनीतिक दल और नेताओं को यह पता है कि अगर हिंदी को हम बढ़ावा देंगे यह बात करेंगे तो हमारा वोट बैंक पर असर पड़ेगा. 26 जनवरी, 1965 को हिंदी देश की राजभाषा बन गई और इसके साथ ही दक्षिण भारत के राज्यों- खास तौर पर तमिलनाडु (तब का मद्रास) में, आंदोलनों और हिंसा का एक जबरदस्त दौर चला और इसमें कई छात्रों ने आत्मदाह तक कर लिया.
इसके बाद 1967 में राजभाषा कानून में संशोधन के रूप में हुई. उल्लेखनीय है कि इस संशोधन के जरिए अंग्रेजी को देश की राजभाषा के रूप में तब तक आवश्यक मान लिया गया जब तक कि गैर-हिंदी भाषी राज्य ऐसा चाहते हों, आज तक यही व्यवस्था चली आ रही है.
हिंदी के प्रति वास्तविक प्रेम नेताओं के भाषणों तक ही सीमित रहता है
हिंदी दिवस के दिन इसके प्रचार-प्रसार और विस्तार को लेकर खूब शोर मचाया जाता रहा है. हमारे देश में सरकारी अर्ध सरकारी संस्थानों में हिंदी-हिंदी होने लगता है . कहीं हिंदी दिवस तो कहीं हिंदी पखवाड़े का आयोजन भी होता है.
हिंदी दिवस को लेकर देशभर में इतने अधिक आयोजन होते हैं कि वहां पर आने वाले हिंदी के तथाकथित प्रेमी कई संस्थानों के अधिकारी गण हिंदी भाषा को लेकर लंबे चौड़े भाषण देते हैं.
जबकि इनका हिंदी के प्रति वास्तविक प्रेम भाषणों तक ही सीमित रहता है अमल में लाया नहीं जाता है. अपना देश शायद दुनिया का अकेला ऐसा देश है जहां भाषा के नाम पर भी दिवस मनाए जाते हैं. 71 सालों से हमारे देश में हिंदी दिवस को लेकर प्रचार-प्रसार तो खूब किया जाता है लेकिन वास्तविक और जिम्मेदार ही इसको अमल में लाने से कतराते हैं.
हर साल की तरह इस बार भी हिंदी दिवस और हिंदी को लेकर बड़ी बड़ी बातें तो की जाएंगी लेकिन उसके विस्तार को लेकर कोई योजना नहीं बन पाती है. इन देशों में हिंदी खूब मुस्कुराती है.
गुयाना, सूरीनाम, त्रिनाद एंड टोबैगो फिजी, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका और सिंगापुर में बोलचाल की भाषा हिंदी भी है. हालांकि यह सभी देश में भारतीय रहते हैं. भारत की अपेक्षा इन देशों में हिंदी खूब फल-फूल और अच्छी सेहत में है.
हिंदी स्वयं ही अपनी ताकत से बढ़ रही है विश्व में
आज पूरा विश्व एक ग्लोबल बाजार के रूप में उभर चुका है . जिसमें हिंदी स्वयं ही तीसरी भाषा के रूप में उभर गई है. हमारे देश में हिंदी का विस्तार भले ही अधिक न हो पाया हो लेकिन विश्व में आज कई बड़ी-बड़ी कंपनियों में हिंदी खूब फल-फूल रही है.
गूगल फेसबुक, व्हाट्सएप, टि्वटर और याहू समेत तमाम कंपनियों ने हिंदी भाषा का बहुत बड़ा बाजार बना दिया है और हिंदी के नाम पर ही अरबों खरबों रुपये की कमाई कर रहे हैं.
हमारे देश समेत विश्व के कई देशों में हिंदी सम्मेलन आयोजित होते रहते हैं | इन सम्मेलनों में भी हजारों लोगों की आमदनी का जरिया हिंदी बनी हुई है.
केंद्रीय हिंदी संस्थान हो चाहे वर्धा महाराष्ट्र का हिंदी विश्वविद्यालय या कई राज्यों में हिंदी के संस्थान संस्थानों पर केंद्र व राज्य सरकार हर वर्ष अरबों का बजट स्वीकृत करती है. इन संस्थानों में भी हजारों लोगों को रोजगार दे रखा है.
हर बार की तरह इस बार भी हिंदी दिवस के विस्तार और प्रचार प्रसार के लिए खूब शोर मचेगा और बातें होंगी. मंत्री, नेता और हिंदी प्रेमी खूब सज-धजकर पहुंचेंगे और हिंदी भाषा की प्रशंसा के लिए बड़े-बड़े भाषण देंगे और चलते बनेंगे . इस तरह एक फिर हिंदी दिवस बीत जाएगा लेकिन मातृभाषा के प्रति सौतेला रवैया, वैसे ही जारी रहेगा.
शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार