आपातकाल के 46 साल: 25 जून की आधी रात से 21 महीनों के लिए लोकतंत्र कर दिया गया था ‘कैद’

आज की तारीख कभी भी एक ‘स्वस्थ लोकतंत्र’ के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती है. यह तारीख जब-जब आती है तब सियासत और ‘सत्ता’ के लिए उठा ‘महाघमासान’ जरूर याद आता है. हालांकि आज की नई पीढ़ी को उस दौर की घटना याद नहीं होगी, लेकिन जो आपातकाल के ‘साक्षी’ रहे हैं उनके जेहन में दहशत के साए में गुजारे 21 माह जरूर याद होंगे.आज 25 जून है.

आइए हम आज आपको 46 वर्ष पहले लिए चलते हैं और भारतीय लोकतंत्र इतिहास के कुछ पन्ने पलटते हैं. 25 जून 1975 देश के लोकतंत्र में सबसे ‘काले अध्याय’ के रूप में याद किया जाता है. इसी तारीख को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत में ‘आपातकाल’ (इमरजेंसी) लगाने की घोषणा की थी. देश में आपातकाल आधी रात को लगी थी, अगली सुबह 26 जून को पूरा देश ‘ठहर’ सा गया था.

इमरजेंसी लागू होने के बाद जनता एक ऐसे अंधेरे में डूब गई थी, जहां सरकार के विरोध का मतलब जेल था. उस दौरान जब अपने अधिकारों को मांगने के लिए भी जनता के पास कोई रास्ता नहीं बचा था, क्योंकि अखबारों में वही छपता था, जो सरकार चाहती थी, रेडियो में वही समाचार सुनाई देते थे, जो सरकार के आदेश पर लिखे जाते थे. देश में इतनी ‘बंदिशेंं’ थोपी गई थी कि विरोध का मतलब सीधे ही ‘जेल’ भेज दिया जाता था. जिन लोगों ने इमरजेंसी के खिलाफ विरोध किया, उनको ‘भारी कीमत’ भी चुकानी पड़ी थी. आइए देश में लागू किए गए आपातकाल सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं.

इंदिरा सरकार ने 25 जून 1975 की ‘आधी रात को आपातकाल की घोषणा की, जो 21 मार्च 1977 तक लगी रही’. आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए थे. इसे आजाद भारत का सबसे विवादास्पद दौर माना जाता है, पूरे देश में जनता की आजादी पूरी तरह समाप्त कर दी गई थी . सरकार ने पूरे देश को एक बड़े जेलखाना में बदल दिया . आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था.

आपातकाल में जय प्रकाश नारायण की अगुवाई में पूरा विपक्ष एकजुट हो गया. पूरे देश में इंदिरा के खिलाफ आंदोलन छिड़ गया, सरकारी मशीनरी विपक्ष के आंदोलन को कुचलने में लग गई थी. अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मुलायम सिंह यादव समेत विपक्ष के तमाम नेता जेल में ठूंस दिए गए. उस समय इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने देश में हजारों लोगों की जबरदस्ती ‘नसबंदी’ भी करा दी थी, जिससे देश में तानाशाही का माहौल बन गया था.

हजारों लोग नसबंदी के डर के मारे इधर-उधर छुपते फिर रहे थे. ‘बता दें कि 36 साल बाद आखिरकार इमरजेंसी में जीने तक का हक छीन लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी 2011 में अपनी गलती मानी थी, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान इस कोर्ट से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था’.

शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार

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