ताजा हलचल

महान फनकार: मोहम्मद रफी की एक बार मखमली आवाज सुन लेता वह कभी नहीं भूलता

0
मोहम्मद रफी

आज से 41 वर्ष पहले देश ने एक महान फनकार और मखमली आवाज को खो दिया था. आज 31 जुलाई है जब-जब यह तारीख आती है आवाज के कद्रदानों और संगीत प्रेमियों को ‘गमगीन’ कर जाती है. जी हां हम बात कर रहे हैं गायन क्षेत्र के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी की. 31 जुलाई 1980 को मोहम्मद रफी दुनिया से रुखसत हो गए . आज भी बारिश हो रही है उस दिन भी तेज बारिश हो रही थी जब रफी अपने अंतिम सफर पर निकले थे.

उनके जाने से प्रकृति भी ‘मायूस’ थी. रफी के निधन पर मशहूर गीतकार नौशाद ने लिखा, ‘गूंजते है तेरी आवाज अमीरों के महल में, झोपड़ों की गरीबों में भी है तेरे साज, यूं तो अपनी मौसिकी पर सबको फक्र होता है मगर ए मेरे साथी मौसिकी को भी आज तुझ पर नाज है’. वह आज भी अपने चाहने वालों के दिलों में पहले की तरह ही जीवित हैं. रफी साहब की आज 41वीं पुण्यतिथि पर उनकी गायकी के करियर को लेकर चर्चा करेंगे.

एक ऐसी सुरीली आवाज जिसकी दुनिया दीवानी थी. बता दें कि मोहम्मद रफी की आवाज जो एक बार किसी के कानों में पड़ जाए तो हमेशा के लिए लोगों के जेहन में समा जाती है. जितनी मधुर उतनी ही कोमल, जितनी कोमल उतनी ही सहज. बिल्कुल उनके स्वभाव की तरह. पचास के दशक में जब भी संगीत की कोई महफिल होती थी उसमें मोहम्मद रफी को गाने के लिए बुलाया जाता था. बॉलीवुड में कोई आज तक रफी नहीं बन पाया.

हिंदी सिनेमा के श्रेष्ठतम पार्श्व गायकों में से एक मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज की मधुरता और परास की अधिकता के चलते अपने समकालीन गायकों के बीच अपनी अलग पहचान छोड़ी. अगर एक गाने में इजहार-ए-इश्क की एक सौ एक विधाएं दर्शानी हों तो आप सिर्फ एक ही गायक का नाम ले सकते हैं वो हैं मोहम्मद रफी. जितनी सहजता और सरलता उनके गीतों में थी उतनी ही उनके स्वभाव में थी.

वे इतना धीरे बोलते थे कि सामने वाले को कान लगा कर उनकी बात सुननी पड़ती. शकील बदायूं के गीत, नौशाद का संगीत और मोहम्मद रफी की आवाज ने वर्षों तक बॉलीवुड में राज किया. महान फनकार की पुण्यतिथि पर आज संगीत प्रेमी और उनके प्रशंसक सोशल मीडिया पर उन्हें याद करते हुए श्रद्धांजलि दे रहे हैं. आइए अब जानते हैं मोहम्मद रफी का गायकी का सफर कैसे शुरू हुआ.

मोहम्मद रफी को संगीत और गायकी की प्रेरणा एक फकीर से मिली थी
यहां हम आपको बता दें कि मोहम्मद रफी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह गांव में में हुआ था. आप को ये जानकर हैरानी होगी कि इतने बडे़ आवाज के जादूगर को संगीत की प्रेरणा एक फकीर से मिली थी. कहते हैं जब रफी छोटे थे तब इनके बड़े भाई की नाई दुकान थी, रफी का ज्यादातर वक्त वहीं पर गुजरता था. रफी जब सात साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की दुकान से होकर गुजरने वाले एक फकीर का पीछा किया करते थे जो उधर से गाते हुए जाया करता था.

उसकी आवाज रफ़ी को अच्छी लगती थी और रफी उसकी नकल किया करते थे. उनकी नकल में अव्वलता को देखकर लोगों को उनकी आवाज भी पसंद आने लगी. लोग नाई दुकान में उनके गाने की प्रशंशा करने लगे. लेकिन इससे रफी को स्थानीय ख्याति के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला. रफी के बड़े भाई हमीद ने मोहम्मद रफी के मन मे संगीत के प्रति बढ़ते रुझान को पहचान लिया था और उन्हें इस राह पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया था.

लाहौर में रफी संगीत की शिक्षा उस्ताद अब्दुल वाहिद खान से लेने लगे और साथ हीं उन्होंने गुलाम अली खान से भारतीय शास्त्रीय संगीत भी सीखना शुरू कर दिया. बता दें कि रफी ने पहली बार 13 वर्ष की उम्र में अपना पहला गीत स्टेज पर दर्शकों के बीच पेश किया.

दर्शकों के बीच बैठे संगीतकार श्याम सुंदर को उनका गाना अच्छा लगा और उन्होंने रफी को मुंबई आने के लिए न्योता दिया. श्याम सुुंदर के संगीत निर्देशन में रफी ने अपना पहला गाना, ‘सोनिये नी हिरीये नी’ पार्श्वगायिका जीनत बेगम के साथ एक पंजाबी फिल्म गुल बलोच के लिए गाया.

वर्ष 1944 में पहली बार हिंदी सिनेमा के लिए गाया था गाना
किस्मत मोहम्मद रफी को मुंबई (बंबई) ले आई. वर्ष 1944 मे नौशाद के संगीत निर्देशन में उन्हें अपना पहला हिन्दी गाना, हिन्दुस्तान के हम है पहले आप के लिए गाया. फिल्म का नाम ‘गांव की गोरी’ था. उसके बाद मोहम्मद रफी वर्ष 1949 में नौशाद के संगीत निर्देशन में दुलारी फिल्म में गाए गीत ‘सुहानी रात ढल चुकी’ के जरिए वह सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंच गए और इसके बाद उन्होनें पीछे मुड़कर नही देखा.

मोहम्मद रफी ने फिल्म बैजू बावरा के गाने गाए थे. इसमें एक गाना “ओ दुनिया के रखवाले” उन्होंने गाया था. गाना थोड़ा कठिन था. कहा जाता है कि गाने को गाते वक्त रफी साहब के गले से खून निकल आया था. इसके बाद काफी समय तक उनका गला खराब रहा. लोगों को लगा कि अब रफी साहब दोबारा कभी नहीं गा पाएंगे. मगर उन्होंने फिर से वापसी की और एक से बढ़कर एक सुरीले नगमें गाए. रफी को ‘क्या हुआ तेरा वाद’ गाने के लिए ‘नेशनल अवॉर्ड’ से सम्मानित किया गया था.

1967 में उन्हें भारत सरकार की तरफ से ‘पद्मश्री’ अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था. हिंदी के अलावा कई भाषाओं में रफी ने गाने गाए थे मोहम्मद रफी ने चार दशक के अपने फिल्मी गायन के क्षेत्र में हजारों गानों को अपनी आवाज दी. उन्होंने हिंदी के अलावा भी कई भाषाओं में गाने गाए थे.

असामी, कोंकणी, भोजपुरी, ओड़िया, पंजाबी, बंगाली, मराठी, सिंधी, कन्नड़, गुजराती, तेलुगू, माघी, मैथिली, उर्दू, के साथ साथ इंग्लिश, फारसी, अरबी और डच भाषाओं में भी मोहम्मद रफी ने गीत गाए हैं.

चार दशक तक रफी ने हिंदी समेत कई भाषाओं में हजारों गाने गाए
लगभग चार दशकों तक मोहम्मद रफी ने हजारों गानों को आवाज दी. अपनी आवाज के जादू से वे देशवासियों को मंत्रमुग्ध करते रहे. गजल हो सुफी हो या भक्ति रस, क्लासिकल हो, सेमी क्लासिकल या लाइट सॉन्ग, रफी की आवाज में सभी शैलियों के गाने फिट बैठते थे.

मोहम्मद रफी ने सबसे ज्यादा डुएट गाने ‘आशा भोसले’ के साथ गाए हैं. लता मंगेशकर के साथ रॉयल्टी को लेकर हुए विवाद के चलते दोनों के बीच में अनबन हो गई थी. पहले रफी और लता ने साथ में ढेर सारे सुंदर नगमे गाए.

मगर विवाद के बाद लता मंगेशकर ने रफी साहब के साथ गाना छोड़ दिया. इस दौरान रफी साहब ने आशा भोसले के साथ कई यादगार नगमें गाए. मोहम्मद रफी, मुकेश और किशोर कुमार ऐसे सिंगर रहे जिन्हें लोग खूब सुनते थे.

तीनों की जोड़ी बेमिसाल थी. तीनों ने अमर अखबर एंथनी में एक साथ गाना भी गाया था. किशोर कुमार खुद एक महान गायक थे. बावजूद इसके किशोर के लिए भी उनकी दो फिल्मों ‘बड़े सरकार’ और ‘रागिनी’ में रफी साहब ने आवाज दी थी. आज भले ही यह महान फनकार हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी आवाज लाखों-करोड़ों संगीत प्रेमियों और प्रशंसकों के दिलों में गूंजती रहेगी.

शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार

NO COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Exit mobile version