देहरादून| देवभूमि उत्तराखंड में जहां कई राजनीतिक पार्टियां विधानसभा चुनाव से पहले अपनी सियासी जमीन तलाशने में जुटी हैं, वही बीजेपी में एक बार फिर अंतर्विरोध दिख रहा है. पार्टी के विधायक अपनी सरकार पर अनदेखी का आरोप लगाने लगे हैं. दरअसल जब से आम आदमी पार्टी ने यह ऐलान किया है कि वह उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सभी 70 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, उसके बाद से बीजेपी में हाशिये पर पड़े बीजेपी विधायक और नेता अपनी नाराजगी दिखाने लगे हैं. यह नारजगी इस कदर है कि विधायक प्रदेश में सीएम और प्रदेश अध्यक्ष से कहने की बजाय सीधे दिल्ली का रुख कर रहे हैं. सूत्रों की मानें, तो प्रदेश सरकार से नाराज विधायकों की नजर सरकार में मंत्री की खाली पड़ी सीट पर है.
प्रदेश में विधानसभा की 70 सीटें हैं. संवैधानिक आधार पर सरकार में 12 मंत्री बन सकते हैं. मार्च 2017 में जब त्रिवेंद्र रावत की सरकार बनी, तो सीएम सहित 9 लोगों ने शपथ लिया. उसी समय मंत्रिमण्डल में 2 सीटें खाली रह गईं. बाद में सरकार के कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत के निधन के बाद एक सीट और खाली हो गई. अब तीन मंत्री के पद खाली हैं. लिहाजा मौका देख विधायक अपने-अपने हिसाब से अपना सियासी रोड मैप तैयार करने में जुट गए हैं.
यही वजह है कि मंत्री बनने की चाहत रखने वाले विधायक प्रदेश के मुखिया त्रिवेंद्र सिंह रावत और प्रदेश अध्यक्ष बंशी धर भगत से अपनी शिकायत दर्ज कराने के बजाए सीधे दिल्ली का रुख कर रहे हैं. वे पार्टी आलाकमान के सामने अपनी बात रखना चाहते हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेता बिशन सिंह चुफाल का बुधवार को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से मिलना और विधायक उमेश शर्मा का पत्र लिखना और पत्र में नौकरशाही पर सवाल खड़े करना इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है.
हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राज्य में अपनी सियासी जमीन तलाश रही आम आदमी पार्टी बीजेपी नेताओं को अपने से जोड़ने का ऑफर नहीं दे रही होगी. यही वजह की पार्टी से निष्काषित विवादित विधायक प्रणव सिंह चैंपियन को पार्टी ने वापस ले लिया है. ऐसे में मौका देख एकबार फिर दबाव और नाराजगी की राजनीति शुरू हो गई है. यह कोई पहली बार नहीं है, इसके पहले भी सीएम त्रिवेंद्र रावत पर मनमानी का आरोप लगा चुके हैं पार्टी के नेता. समय-समय पर पार्टी के भीतर नेता विधायक अपने सीएम पर इस बात का आरोप लगाते रहे हैं कि उनकी कोई सुनने वाला नहीं है. प्रदेश में नौकरशाही हावी है और इस मुद्दे को लेकर देहरादून से दिल्ली तक कई विधायक चक्कर लगा चुके हैं, उसके बाद भी सीएम त्रिवेंद्र रावत अपनी सीट पर बरकरार हैं.
उत्तराखंड बीजेपी के इतिहास पर नजर डाली जाए तो पार्टी के अंदर गुटबाजी कोई नई बात नहीं है. वर्तमान में महाराष्ट्र के राज्यपाल और उन दिनों पार्टी के रणनीतिकार भगत सिंह कोश्यारी और बीसी खंडूरी के बीच चले सियासी शीत युद्ध ने 2009 के लोकसभा चुनाव में और 2012 विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार का सबसे बड़ा कारण बना था. 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बीसी खंडूरी थे. खंडूरी ईमानदार छवि के लिए जाने जाते थे. विपक्ष भी कोई सवाल खड़ा करने से पहले सोचता था. लेकिन पार्टी में चली गुटबाजी की वजह से 2009 के चुनाव में लोकसभा की पांचों सीट हारनी पड़ी और बीसी खंडूरी को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा. रमेश पोखरियाल निशंक को सीएम पद मिला.
सीएम के रूप में युवा चेहरा होने की वजह से लोगों में एक विश्वास दिखा प्रदेश के डेवलपमेंट को लेकर. लेकिन पार्टी की गुटबाजी ने दो साल के अंदर ही रमेश पोखरियाल निशंक को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया और तत्कालीन बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने एक बार फिर ईमानदारी के लिए जानेजाने वाले बीसी खंडूरी को सीएम की कुर्सी सौप दी, क्योंकि सामने 2012 विधनसभा चुनाव था और उत्तराखंड में नारा दिया गया – खंडूरी हैं जरूरी.
लेकिन इस चुनाव में खंडूरी अपनी सीट नहीं बचा पाए और हार का मुह देखना पड़ा. प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही. उत्तराखंड के सियासी घटनाक्रम को पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा बखूबी जानते हैं. यही वजह है कि दबाव बनाने के लिए विधायक देहरादून से दिल्ली पहुच तो रहे हैं, लेकिन उन्हें अपने मकसद में कामयाबी नहीं मिल रही है.
साभार -न्यूज़ 18