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दुनिया डिस्टर्ब: अफगानिस्तान में तालिबान शासन को रूस-चीन और पाकिस्तान का समर्थन तो कई देश उलझे

अफगानिस्तान पर कब्जे के साथ तालिबान ने इन दिनों दुनिया को ‘डिस्टर्ब’ कर रखा है. पाकिस्तान, चीन और रूस के अलावा कई देशों को समझ में नहीं आ रहा है कि वह अफगानिस्तान के साथ भविष्य में कैसा रिश्ता बनाएं. तालिबान सरकार को लेकर रूस, चीन और पाकिस्‍तान ने अपनी नीति साफ कर दी है.

तीनों देशों ने प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष रूप से तालिबान शासन को जायज ठहराया है. वहीं पिछले दिनों ‘ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कहा कि अफगानिस्तान में कोई स्थाई समाधान निकले, इसके लिए हर स्तर पर हमारी कोशिश जारी रहेगी.

पीएम जॉनसन ने कहा कि जरूरत पड़ी तो तालिबान संग भी काम किया जाएगा’. जहां एक ओर अमेरिका की बाइडेन सरकार तालिबानों के साथ सख्त रवैया अपनाए हुए है वहीं भारत भी फिलहाल इनके प्रति नरमी के ‘मूड’ में नहीं है. अफगानिस्‍तान मामले में भारत संभल-संभल कर कदम आगे बढ़ा रहा है. केंद्र सरकार अफगानिस्‍तान में नई स्थिति का गइराई से व‍िश्‍लेषण कर रही है.

तालिबान भारत के प्रति पिछले वर्षों में आक्रामक रवैया अपनाता रहा है. शुक्रवार को गुजरात के सोमनाथ में कई परियोजनाओं के उद्घाटन और शिलान्यास के दौरान ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट तौर पर कहा कि वह तालिबानियों का हिंसक रवैये की निंदा करते हैं’. दूसरी ओर ‘अफगानिस्तान में तालिबान की ताकत लगातार बढ़ती जा रही है. उस देश के बदलते समीकरण पूरी दुनिया की राजनीति पर गहरा असर छोड़ रहे हैं’.

अब सवाल उठ रह रहा है कि कौन-कौन से देश तालिबानी सरकार को मान्यता देंगे. अफगानिस्तान में तालिबान शासन से भारत के सामने आतंकवाद की चुनौती और गहरी होने की आशंका पैदा हो गई है. तालिबान को पाकिस्तान और चीन का समर्थन मिलना इसकी बड़ी वजह है. ऐसे में भारत को अपनी सुरक्षा को और भी चाक-चौबंद करने की दरकार है .

‘अफगानिस्तान में तालिबान शासन से सबसे अधिक पड़ोसी पाकिस्तान खुश नजर आ रहा है’. सबसे पहले प्रधानमंत्री इमरान खान ने तालिबान सरकार को मान्यता दे दी. ‘भले ही चीन, रूस और पाकिस्तान तालिबान शासन के साथ खड़े हुए क्यों न हो लेकिन इस बार उन्हें सरकार चलाना आसान नहीं होगा, बता दें कि साल 1996 से 2001 तक तालिबानियों ने अफगानिस्तान में अपनी सरकार चलाई थी. लेकिन अब और तब के हालातों में बहुत अंतर आया है’. यही नहीं तालिबानों का देश में विरोध भी बढ़ता जा रहा है.

अफगानिस्तान का पंजशीर क्षेत्र तालिबान के लिए बना सिरदर्द
बता दें कि एक तरफ जहां तालिबान अपनी सरकार बनाने की तैयारी में जुटा हुआ है वहीं दूसरी ओर पंजशीर इलाका अभी भी इन कट्टरपंथियों के लिए ‘मुसीबत’ बना हुआ है. यह वही इलाका है जहां तालिबान अभी तक अपना कब्जा नहीं कर पाया है.’राजधानी काबुल से करीब सवा सौ किलोमीटर दूर पंजशीर घाटी के लड़ाकों ने तालिबान के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया है’.

तालिबान के खिलाफ लड़ने के लिए पूर्व सैनिकों ने भी मोर्चा संभालना शुरू कर दिया है. ‘इन सभी की अगुवाई अहमद मसूद कर रहे हैं. दिवंगत अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद भी तालिबान का डटकर मुकाबला करते हुए अपने पिता के ही मार्ग पर हैं’. अहमद ने लंदन के किंग्स कॉलेज से वॉर स्टडीज की पढ़ाई की है. 2016 में अफगानिस्तान लौटे अहमद ने 2019 में राजनीति में एंट्री की और वे पंजशीर में मिलिशिया फोर्स की कमान संभालते हैं.

अहमद मसूद कई देशों से मदद भी मांग रहे हैं. दूसरी ओर खुद को कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित कर चुके अफगानिस्तान के उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह भी पंजशीर से ही ताल्लुक रखते हैं और काबुल में तालिबान के कब्जे के बाद से वो यहीं रह रहे हैं. सालेह ने गुरिल्ला कमांडर अहमद शाह मसूद के साथ नब्बे के दशक में कई लड़ाइयां लड़ीं हैं . वहीं अफगानिस्तान की जनता अलग-अलग इलाकों में उसके खिलाफ सड़कों पर आ रही है.

काबुल में भी जनता तालिबान के खिलाफ आवाज उठा रही है. अफगानिस्तान का राष्ट्रीय ध्वज लेकर प्रदर्शन करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है. तालिबान ने दो दिन पहले जलालाबाद में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलियां भी चलाईं, लेकिन विरोध कम नहीं हो रहा.

विरोध का यह सिलसिला राजधानी काबुल तक पहुंच चुका है, जिसे देखते हुए तालिबान को अब सत्ता खोने का डर सता रहा है. अब लोगों की आवाज को दबाने के लिए तालिबान ने अफगानिस्तान के इमामों से लोगों को समझाकर एकजुट करने की अपील की है.

बताया जा रहा है कि अफगानिस्तान के तीन जिले तालिबान के कब्जे से मुक्त हो गए हैं. फिलहाल अफगानी जनता को तालिबानों से आजादी मिलना आसान नहीं होगा.

शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार

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