भाजपा के लिए बंगाल का जख्म कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है. दो मई को आए राज्य विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद हर मोर्चे पर बीजेपी टीएमसी से ‘हारती’ जा रही है. बंगाल चुनाव से पहले टीएमसी में गए भाजपा नेताओं ने अब फिर से घर वापसी शुरू कर दी है. शुक्रवार को भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय पार्टी से सभी ‘नाता’ तोड़कर एक बार फिर से ममता बनर्जी की ‘शरण’ में आ गए हैं. इसके बाद बंगाल में भाजपा की ‘रीढ़’ भी कमजोर हो गई है.
वहीं मुकुल के लिए भाजपा में करने के लिए अब कुछ बचा भी नहीं था. बंगाल में विधानसभा 5 वर्ष और लोकसभा के चुनाव 3 साल बात होने हैं. इस प्रकार मुकुल की बीजेपी में राजनीति ‘ठंडी’ हो जाती. दूसरी ओर भाजपा हाईकमान ने उन्हें शुभेंदु अधिकारी से भी ‘जूनियर’ बना दिया था. ‘अब मुकुल ममता के साथ रहकर सत्ता पक्ष में बने रहेंगे, इससे बंगाल में उनका रुतबा भी बरकरार रहेगा’. ‘बता दें कि मुकुल रॉय ही ऐसे नेता थे जिनके सहारे भाजपा ने बंगाल की सत्ता पर काबिज होने के लिए साल 2017 से सपने देखने शुरू कर दिए थे, रॉय बंगाल की राजनीति का ऐसा पहला बड़ा चेहरा हैं जो बीजेपी से टीएमसी में शामिल हुए थे’.
‘मुकुल के चुनावी प्रबंधन का ही कमाल था कि भाजपा ने 2018 में हुए पंचायत चुनाव में कई सीटों पर शानदार प्रदर्शन किया था, इसके बाद साल 2019 लोकसभा में पार्टी ने 18 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया इसके पीछे भी रॉय का बड़ा रोल रहा’. उसके बाद सब कुछ ठीक चलता रहा भाजपा में मुकुल की अहमियत बढ़ती चली गई है. उन्हें बीजेपी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया. लेकिन बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा हाईकमान का मुकुल पर भरोसा कम होता चला गया. ‘बंगाल चुनाव के दौरान रॉय ने महसूस किया कि 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान उनसे मशविरा किया गया, तो बीजेपी को इस चुनाव में शानदार जीत मिली थी.
लेकिन साल 2021 में ऐसा संभव नहीं हो पाया, उन्हें पार्टी की सभी बैठकों और चर्चा में शामिल नहीं किया गया और न ही उनके सुझावों को भी ज्यादा महत्व नहीं दिया गया’. जबकि तृणमूल कांग्रेस में मुकुल रॉय का कद कभी नंबर-2 का हुआ करता था. ये भी एक बड़ी वजह रही उनके पार्टी से बाहर कदम रखने की. रॉय को भाजपा ने कोलकाता की कृष्णानगर उत्तर सीट से चुनावी मैदान में उतारा . उन्होंने टीएमसी की उम्मीदवार कौशानी मुखर्जी को हराया . मुकुल रॉय के बेटे शुभ्रांग्शु रॉय को भी बीजेपी ने टिकट दिया था, लेकिन वे हार गए.
बीजेपी ने भले ही उपाध्यक्ष का पद मुकुल रॉय को दे दिया हो, लेकिन बंगाल की सियासत के तमाम ‘निर्णय’ केंद्रीय नेतृत्व ही लेता रहा. चुनाव के दौरान भी वो अपने विधानसभा क्षेत्र तक सीमित रहे. चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही उन्होंने पार्टी से ‘दूरी’ बनानी शुरू कर दी थी. वहीं बंगाल में हार के बाद दिल्ली भाजपा हाईकमान भी उन्हें ‘दरकिनार’ करने लगा नंदीग्राम से शुभेंदु अधिकारी ने ममता बनर्जी को हरा दिया तो उन्हें लगने लगा कि अब बीजेपी इस चेहरे के साथ आगे की राजनीतिक ‘सफर’ को तय करेगी.
लेकिन जब शुभेंदु अधिकारी को नेता विपक्ष की जिम्मेदारी दी गई तो मुकुल रॉय को आभास होने लगा कि अब बीजेपी में उनके लिए बहुत कुछ करने के लिए नहीं रह गया है. ‘मुकुल वर्तमान में बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और शुभेंदु अधिकारी से सीनियर थे. लेकिन शुभेंदु के बढ़ते कद की वजह से भी यह नाराजगी सामने आई, विधानसभा चुनाव के बाद प्रतिपक्ष के नेता के चयन का मामला आया तो मुकुल रॉय की जगह बंगाल चुनाव के दौरान पार्टी में शामिल शुभेंदु अधिकारी को इस पद पर बिठा दिया गया’.
शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार