आज बात उस आंदोलन की होगी जो देश की राजधानी दिल्ली की चौखट पर पिछले 25 दिनों से सर्द शीतलहर में किया जा रहा है. ‘यह एक ऐसा विरोध-प्रदर्शन है जिसमें चेहरों पर आक्रोश और अजीब सी दहशत है, इसके बावजूद इरादे बुलंद हैं. लाखों आंखें जैसे कह रहीं हैं कि हमारे साथ न्याय नहीं हुआ है’.
उसके बावजूद भी वो ऐसे कानून को वापस लिए जाने की जिद पर अड़े हैं, जिसे भाजपा सरकार ऐतिहासिक बता रही है. वे इस उम्मीद में कृषि सुधार कानूनों को वापस लेने के लिए दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर डटे हैं. कड़ाके की ठंड और अपनों की जान भी इनका इरादा नहीं डिगा सकी है.
हर दिन बुलंद होती आवाज में एक ही स्वर सुनाई दे रहे हैं, ‘चाहे कितनी ही ठंड क्यों न पड़े हम यहां से तब तक वापस नहीं जाएंगे जब तक सरकार तीनों काले कानून वापस नहीं लेती’. वहीं दूसरी ओर सरकार इन्हें राजद्रोही और नक्सली भी बता रही है.जी हां आज हम बात कर रहे हैं अन्नदाता यानी किसानों की. पिछले तीन सप्ताह से दिल्ली में डेरा डालकर देशभर का किसान केंद्र सरकार से कृषि विधेयक कानून को वापस लेने की मांग कर रहा है.
इस विधेयक का विरोध पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से शुरू होकर अधिकांश राज्यों तक फैल गया है. भाजपा सरकार के खिलाफ किसान आंदोलित होने लगे हैं.
किसानों के हर दिन बढ़ रहे गुस्से के आगे केंद्र सरकार हर कदम बहुत संभल कर आगे बढ़ा रही है. पिछले दिनों खुद पीएम मोदी और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों को मनाने की और आश्वासन देने का प्रयास किया लेकिन वह इसमें सफल नहीं हो सके हैं.
इस बार किसानों ने भी ठान लिया है कि वह कृषि कानून को वापस करा कर ही पीछे हटेंगे. बात को आगे बढ़ाएं उससे पहले आपको दो महीने पीछे लिए चलते हैं. इसी वर्ष सितंबर महीने में संसद के मानसून सत्र के दौरान जब पीएम मोदी ने कृषि कानून विधेयक पारित करवाया था तब उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि यह कानून आगे चलकर किसानों में आक्रोश भर देगा.
‘बता दें कि पीएम मोदी ने इन विधेयकों के संसद से पारित होने के बाद कहा था कि अब किसानों को अपनी फसल मंडी ही नहीं किसी भी खरीदार को किसी भी कीमत पर और किसी भी राज्य में बेचने की आजादी मिलेगी. लेकिन पीएम मोदी का यह महत्वपूर्ण विधेयक गले की फांस बनता जा रहा है’ .
शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार