आज बात करेंगे उत्तर प्रदेश की सियासत की. सोमवार को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने चुनावी बजट पेश कर अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ा दिया. वहीं समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी पिछले काफी समय से प्रदेश की सियासत में जमीनी स्तर पर खूब सक्रिय हैं. हाथरस कांड, कृषि बिल, दिल्ली में किसानों के आंदोलन और अब पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसानों की महापंचायत में प्रियंका और अखिलेश यादव जमीन पर उतर कर भाजपा सरकार के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाए हुए हैं.
यही नहीं केंद्र से लेकर योगी सरकार के सभी मुद्दों पर सपा और कांग्रेस खुलकर विरोध करती रही हैं. लेकिन अभी तक बसपा भाजपा सरकार के किसी भी मुद्दे के खिलाफ सड़क पर नहीं उतर सकी है. आज हम बात करेंगे सपा और कांग्रेस के मुकाबले कमजोर पड़ती मायावती की सियासी पारी की.
प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर सत्तारूढ़ भाजपा, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की बिसात जमीनी स्तर पर बिछनी शुरू हो गई है. लेकिन मायावती की ललकार और चुनावी तैयारियां अभी तक रफ्तार नहीं पकड़ पाई. कुछ साल पहले ही बसपा प्रमुख मायावती के विरोधियों पर हमले और तीखी भाषा की गूंज देश भर में सुनाई देती थी, लेकिन अब वही मायावती केंद्र से लेकर योगी सरकार के अधिकांश मुद्दों पर मौन बनीं रहतीं हैं.
इसका बड़ा कारण यह भी है कि पिछले कुछ समय से बसपा के कई बागी नेता पार्टी छोड़ने में लगे हुए हैं. चाहे कृषि बिल हो किसानों का आंदोलन या अब महापंचायतों को लेकर मायावती का स्टैंड लचीला रहा. किसानों के समर्थन में न वो खुद जमीन पर उतरीं न अपने पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को महापंचायतों में जाने का फरमान दिया. कुछ मामले ऐसे भी रहे विरोध करने के बजाय मायावती केंद्र और यूपी सरकार से आग्रह करतीं हुईं नजर आईं. सोमवार को प्रदेश सरकार के बजट पर भी बसपा प्रमुख ने अपनी प्रतिक्रिया ट्विटर पर लिख कर इतिश्री कर ली. मायावती ने कहा कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में आज पेश भाजपा सरकार का बजट भी केंद्र सरकार के बजट की तरह ही है.
पार्टी के नेताओं को एकजुट रखने में सफल नहीं हो पा रहीं हैं मायावती
चार दशक से अधिक लंबे अपने सियासी सफर में मायावती ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. एक के बाद एक चार चुनाव हारने और पार्टी नेताओं की बगावत ने उनकी सियासत कमजोर होती चली गई. मायावती अपने कई दिग्गज नेताओं को खो चुकी हैं. साथ ही उनका परंपरागत वोटर भी खिसकता जा रहा है.
मौजूदा समय में सियासी बिसात पर उनकी पार्टी चारों तरफ से घिरी हुई हैै. अब न तो मायावती पहले की तरह जमीन पर उतरकर संघर्ष कर पा रहीं हैं और न अपने नेताओं को एकजुट कर पा रहीं हैं. ऐसे में बसपा का जनाधार लगातार खिसकता जा रहा है.
सवाल उठता है कि यूपी में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा का एजेंडा और मुद्दा क्या रहेंगे, अभी मायावती तय नहीं कर पा रहीं हैं. बता दें कि बसपा का 2012 के बाद से ग्राफ नीचे गिरता जा रहा है. पार्टी 2017 के चुनाव में 19 सीटें ही जीत सकी थी, लेकिन उसके बाद से यह आंकड़ा घटता ही जा रहा है. बसपा के कुल 15 विधायक बचे थे, जिनमें से 9 विधायकों के बागी रुख अपनाने के बाद पार्टी के पास विधायकों की संख्या छह रह गई है.
बजट सत्र के पहले दिन बसपा के नौ असंतुष्ट विधायकों ने और बढ़ा दी मायावती की टेंशन
प्रदेश में बजट सत्र के पहले दिन मायावती को बड़ा झटका लगा जब बसपा के 9 असंतुष्ट विधायकों ने स्पीकर अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित से मुलाकात कर खुद को पार्टी विधानमंडल दल से अलग बैठने की मांग की. बसपा के बागी विधायक असलम राइनी ने विधानसभा अध्यक्ष से मुलाकात के बाद कहा कि बसपा में अब केवल 6 विधायक ही बचे हैं और हमारी संख्या अब पार्टी की संख्या से अधिक है इसलिए हमारे ऊपर दलबदल कानून भी लागू नहीं होता है और हमें सदन में बैठने की बसपा नेताओं से अलग जगह दी जाए.
पिछले साल अक्टूबर महीने में राज्यसभा चुनाव के दौरान असलम राइनी, असलम अली, मुजतबा सिद्दीकी, हाकिम लाल बिंद, हरगोविंद भार्गव, सुषमा पटेल और वंदना सिंह ने अखिलेश यादव से मुलाकात की थी. इसके बाद मायावती ने इन सात विधायकों को निष्कासित कर दिया था.
इससे पहले मायावती अनिल सिंह और रामवीर उपाध्याय को पहले ही भारतीय जनता पार्टी के साथ जाने के लिए निष्कासित कर चुकी हैं. अब देखना होगा यूपी में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में मायावती अपनी पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिए कौन सा नया सियासी दांव चलेंगी.
शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार
किसान महापंचायतों में कांग्रेस-सपा के दांव पर मायावती की कमजोर पड़ती सियासी जमीन
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