…तो ये है तालिबान राज को मान्यता देने के पीछे ड्रैगन की चाल!

तालिबान के कब्जे के बाद से अब पूरी दुनिया की नजरें अफगानिस्तान पर हैं. भारत समेत ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, कतर, उज्बेकिस्तान जैसे देशों ने यह साफ कर दिया है कि वह तालिबान के शासन को मान्यता नहीं देंगे.

हालांकि चीन, रूस, तुर्की जैसे देश तालिबानियों के साथ दोस्ताना रिश्ते बनाए रखने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं. चीन पहले ही इसे स्पष्ट कर चुका है. इसे पीछे की वजह चीन के निजी हित भी हैं. दरअसल चीन की 76 किमी सीमा अफगानिस्तान से लगती है.

ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन अफगानिस्तान में अभी जल्दबाजी करने के मूड में नहीं है. फिलहाल वह न तो अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी से उपजी सुरक्षा स्थिति को भरने की कोशिश में है और न ही बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट को लेकर अफगानिस्तान की तरफ देख रहा है.

अफगानिस्तान में तांबा, कोयला, लोहा, लिथियम और यूरेनियम समेत गैस और पेट्रोल के बड़े भंडार हैं. हालांकि इसके बाद भी फिलहाल चीनी कंपनियां वहां जाने के बारे में विचार नहीं कर रही हैं, हालांकि कुछ ने अफगानिस्तान के बाजार में जाने का फैसला किया है.

जर्मन मार्शल फंड के एक वरिष्ठ ट्रान्साटलांटिक फेलो और द चाइना-पाकिस्तान एक्सिस के लेखक एंड्रयू स्मॉल कहते हैं, चीन अफगानिस्तान को एक बहुत ही उच्च जोखिम वाले वातावरण के रूप में देखता है और इसे किसी भी तरह के अवसर में बदलने की इच्छा एक अन्य विचार है.

स्मॉल सालों से पाकिस्तान और अफगानिस्तान के साथ चीन के रिश्तों पर नजर रखे हुए हैं. उन्होंने कहा कि चीन क्षेत्रीय स्थिरता और शिनजियांग प्रांत में नए सिरे से होने वाली आतंकी घुसपैठ को लेकर काफी चिंतित है. जहां अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन और अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों का कहना है कि चीन स्थानीय मुस्लिम उइगर आबादी के खिलाफ व्यापक दुर्व्यवहार कर रहा है.

इसके साथ ही चीन अफगानिस्तान में कट्टर इस्लामिक आंदोलन की जीत को एक आंतरिक खतरे के तौर पर देख रहा है. स्मॉल कहते हैं इससे उस तरह के बुनियादी ढांचे में निवेश करने की संभावना भी कम हो जाती है जो पहले से ही खतरनाक सीमा को और भी बढ़ा सकता है. उन्होंने मुझे बताया, “चीन तालिबान के नेतृत्व वाले देश को क्षेत्र के लिए किसी भी तरह के परस्पर केंद्र में बदलने के बारे में सतर्क रहेगा.”

चीन, अफगानिस्तान में विफल निवेश से पहले ही परेशान हो चुका है, विशेष रूप से मेस अयनक में तांबे की परियोजना, जो काबुल के बाहर सिर्फ 25 मील (40 किलोमीटर) दूर है. तालिबान ने खदान पर हमला नहीं करने की विशेष प्रतिबद्धता जताई थी, लेकिन फिर भी, चीन ने अपने संचालन को बंद करने का फैसला किया.

इसने साइट पर चीन के 30 साल के पट्टे पर राज्य के स्वामित्व वाले धातुकर्म निगम को ठंडे बस्ते में डाल दिया, 2007 में $ 2.83 बिलियन के सौदे पर हस्ताक्षर किए, जिसे तब से अफगानिस्तान के इतिहास में सबसे बड़ा विदेशी निवेश माना जाता है. निःसंदेह यह कागज पर एक महत्वपूर्ण सौदा है, लेकिन इसने कभी जमीन पर कुछ ठोस नहीं किया है.

सिंगापुर स्थित एस राजारत्नम स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के एक वरिष्ठ साथी रैफेलो पंतुची ने कहा, अपनी सीमा पर अन्य छह देशों में से एक अफगानिस्तान के साथ रिश्ते बढ़ाने में चीन के पास कई साल थे. अब अफगानिस्तान पहले से ज्यादा अस्थिर हो चुका है और यहां अमेरिका और नाटो सेनाओं जैसी बाहरी उपस्थिति भी नहीं रह गई है. यही कारण है कि चीन अपने राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों को जल्द ही अफगानिस्तान भेजने पर जोर नहीं देगा.

साभार-न्यूज 18

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