रैणी गाँव गौरा देवी और चिपको आंदोलन के पहले से ही एक समृद्ध प्रदेश के रुप में जाना जाता था. रैणी गाँव के ऊपर नीति घाटी के लोग उस समय तिब्बत व्यापार किया करते थे.
पंद्रहवीं सदी के पहले ही नीति घाटी के माणा ग्राम को बद्रीनाथ मंदिर को अर्पण कर दिया था. इसी घाटी के लोग ही बद्रीनाथ के रखरखाव और मंदिर के लिए आवश्यक सामग्रियां जुटाते थे. इतिहास में नीतिघाटी के लोगों को भोटांतिकों के नाम से जाना जाता था. इतिहास बताता है कि शंकराचार्य के बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिरों की नींव के बाद से ही गढ़वाल का यह क्षेत्र जिसे हिमवंत के नाम से जानते हैं धार्मिक संस्कृति का केंद्र बना.
गढ़ नरेशों द्वारा नीति घाटी और उसके ग्रामों को बद्रीनाथ मंदिर देने के कारण उसपर सभी करों से मुक्त रखा गया. कहते हैं जब अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में नीतिघाटी के भोटांतिकों का तिब्बत से व्यापार चरम पर था. उसी समय अमर सिंह थापा के गोरखों ने 1790 में कुमाऊँ पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर दिया. गोरखाओं के कुमाऊँ विजय के बाद उनकी आँखें गढ़राज्य पर थी. इसलिए कुमाऊँ को गोरखा सत्ता के अधीन करने के बाद उन्होंने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया.
1791 में हरक देव की सहायता से गोरखाओं ने लंगूरगढ़ किले पर घेरा डाला मगर वे उसे पाने में असफल रहे. उस समय गढ़वाल पर प्रद्युम्न शाह शासन कर रहे थे. प्रद्युम्न शाह ने गोरखाओं को भगा दिया. मगर जब गढ़वाल में भूकंप, भूस्खलन के बीच जब उनके भाई पराक्रम शाह के कारण गृहयुद्ध छिड़ा तो इस मौके का फायदा उठाकर गोरखाओं ने गढ़वाल के क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया. अमर सिंह थापा व हस्तीदल चतुरिया जैसे गोरखा सेनापति के पीछे गोरखाओं ने गढ़वाल को जीत लिया और प्रद्युम्न शाह खुड़बड़ा के युद्ध में सन 1804 में मारा गया.
गोरखाओं के जीत के बाद समस्त गढ़वाल और कुमाऊँ पर गोरखाओं का राज हुआ जो 1815 तक चलता रहा. गढ़वीरों की पराजय के बाद गोरखाओं ने समस्त गढ़वाल व कुमाऊँ क्षेत्र को लूटा और कई तरह के कर लगाकर जनता का शोषण किया. जो कर देने में असमर्थ था उन्हें गुलाम बनाकर जबरन बेचा गया. यहाँ तक की ब्राह्मणों को भी उसने नहीं छोड़ा. गोरखाओं के उस काल को गोरखाली कहते हैं.
गोरखाओं द्वारा गढ़राज्य को लूटने के बाद उनकी निगाह नीतिघाटी पर पड़ी. नीतिघाटी की समृद्धि की गाथा गोरखाओं ने बहुत सुनी थी. उन्होंने इस क्षेत्र को लूटने और यहाँ के लोगों को भी कर देने के लिए बाध्य करने के लिए वे भोटांतिकों के देश नीतिघाटी की ओर रुख किया. एक महती गोरखा कुमुक (सेना) नीतिघाटी क्षेत्र में बढ़ गई. गोरखाओं के नीतिघाटी के आने की खबर सुनकर भाटांतिकों ने गोरखा सैनिकों के कदम रोकने के लिए रीणी के झूला पुल, जो ऋषिगंगा के ऊपर बना था उसे काट डाला. रीणी का झूला पुल कटने से गोरखा सैनिकों के कदम तो रुक गए मगर रैणी गाँव और नीतिघाटी के क्षेत्रों का संपर्क नीचली घाटियों से कट गया.
क्योंकि भोटांतिक प्रदेश के लोग नीचली घाटियों से व्यापार के बाद ही ग्रीष्मकालीन तिब्बत व्यापार का खर्च वहन कर पाते थे इसलिए इस क्षेत्र के लोगों की स्थिति खराब होने लगी. इतिहास कहता हैं कि भुखमरी तक की नौबत इस क्षेत्र में आ गई थी. यही कारण है कि मजबूरन इस क्षेत्र के लोगों को गोरखाओं की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी. लेकिन राजस्व वसूल करने में गोरखा सैनिकों का व्यवहार इतना निर्मम और कष्टदायी था कि भोटान्तिकों प्रदेश के कई लोगों को अपना जन्मस्थान त्यागना पड़ा.