उत्तराखंड़ को देवों की भूमि (देव भूमि )कहा जाता है, कहते हैं ऋषि मुनियों ने सैकड़ों साल तपस्या करके इसे दिव्यभूमि बनाया है, जिसका वैभव पाने के लिए श्रद्धालु मीलों की यात्रा करके अपने भगवान के दर्शन को आते हैं.
चम्पावत जिले के लोहाघाट नगर से लगभग 6 किलोमीटर दूर कर्णकरायत नामक स्थान से एक किलोमीटर ऊपर लगभग 1900 मीटर ऊंचाई पर स्थित है बाणासुर का किला. इसे स्थानीय लोग बानेकोट भी कहते हैं.
‘कुमाऊं केसरी’ के नाम से प्रसिद्ध बद्रीदत्त पाण्डे की किताब कुमांउ का इतिहास में उन्होंने लिखा है कि लोहाघाट क्षेत्र का “सबसे पुराना किला टौलगढ़ है, जिसको कहते हैं कि वाणासुर दैत्य ने अपने लिए बनाया था.
जब वह विष्णु से न मारा गया तो महाकाली ने प्रकट होकर उसे मारा. लोहा नदी उसी दैत्य के लहू से निकली . वहां की मिट्टी कुछ लाल, कुछ काली है. कहा जाता है कि दैत्य के खून से वह ऐसी हुई. और भी सुई कोट, चुमल कोट, चंदीकोट, छतकोट, बौनकोट किले कहे जाते हैं जो खंडहर के रूप में हैं. ये छोटे-छोटे माण्डलीक राजाओं द्वारा बनाये गये हैं.”
कुछ एसी है बाणासुर किले की भौगोलिक स्थिति–
बाणासुर किले की भौगोलिक स्थिती अपने आप में ही मनमोहक है इसी की वजह से यह किला इतिहास के पन्नों में दर्ज है. किले से 360 अंश तक चारों दिशाओं में बहुत दूर -दूर तक का नजारा साफ देखा जा सकता है. हिमालय का तो यहां से इतना विहंगम दृश्य दिखता है कि पर्यटन विभाग ने अब यहां एक शक्तिशाली दूरबीन भी लगा दी है.
किले से चारों तरफ का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है. चोटी पर लगभग 90 मीटर लम्बे और 20-25 मीटर चौड़ाई के आकार में बने हुये किले के अवशेष अब भी साफ दिखाई देते हैं. यह किला भी अब भारतीय पुरातत्व विभाग में संरक्षण में है.
किले से पूर्व एवं उत्तर दिशा में हिमालय की श्रृंखलाएं दिखाई देती हैं और नेपाल की चोटियों से लेकर चौखम्भा तक की चोटियों को यहां से देखा जा सकता है. पश्चिम की ओर गहरी खाई है और उस ओर घना जंगल भी दिखाई देता है. दक्षिण की कर्णकरायत के आसपास की उपजाऊ जमीन इस किले से दिखाई देती है.
इस किले के दो प्रवेश द्वार हैं. लम्बाकार बने इस किले के वर्तमान स्वरूप को देखकर यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि इस किले का निर्माण कम से कम तीन अलग-अलग कालों में हुआ होगा. किले के चारों कोनों पर चार सुरक्षा बुर्ज बने हुए हैं. चांदपुर गढ़ी की तरह ही बाणासुर के किले में भी दीवारों बाहर देखने के लिए रोशनदान या प्रकाशछिद्र हुए हैं. इन 85 छिद्रों की निचली सतह ढालदार है, सम्भवत यह आकार इनके सामरिक उपयोग में मददगार होता होगा.
प्राचीन काल में जल का कोई उचीत श्रोत ना होने के कारण पानी की दिक्कत रहा करती थी जिसके लिए बाणासुर के किले में आयताकार कुँआ मुख्य भवन के बीचोंबीच बनाया गया था. तेरह मीटर लम्बा और पांच मीटर चौड़ा यह जल संग्राहक लगभग 8 मीटर गहरा है और इसमें नीचे तक उतरने के लिए सीढ़ियां भी बनी हैं.
ऐसा माना जाता हैे कि जब इस किले का उपयोग किया जाता होगा तो उन दिनों निश्चित रूप से इसी जल कुंड का पानी किले के निवासियों के उपयोग में आता होगा. यह भी हो सकता है कि उन दिनों युद्ध आदि की स्थितियों में इस कुंड को किसी बाहरी जल स्रोत के पानी से भरा जाता होगा. किले की दक्षिणी दिशा में कर्णकरायत क्षेत्र में जल स्रोतों की अधिकता आज भी इन क्षेत्र के बेहद उपजाऊ होने की एक बड़ी वजह है.
संभवतः ऐसे ही किसी जल स्रोत ने अतीत में बाणासुर के किले को एक बेहतरीन दुर्ग के रूप में अपनी उपयोगिता दिखाने का मौका दिया होगा. ऐसे ही अनेक लोगों ने अपनी अपनी रोचक कहानीयों के साथ कीले के मानचित्र को दर्शाया हैं.