रविवार को चमोली के रैणी गांव के पास तबाही के उस मंजर को भुलाया नहीं जा सकता है, जो आसमान नीला था एकाएक भूरे बादल अपने कब्जे में लेना शुरू कर चुके थे. ऋषि गंगा अपने किनारों को तोड़कर उत्पात मचा रही थी.
उसकी जद में जो लोग आए वो तिनके की तरह बह गए.रविवार से लेकर आज की तारीख में रेस्क्यू ऑपरेशन जारी है. लेकिन बचाव दल को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में स्थानीय लोगों को डर है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इस हादसे के लिए 1965 का वो अभियान जिम्मेदार है जिसमें न्यूक्लियर डिवाइस को चोटियों में ही दफन कर दिया गया था.
चमोली जिले में उत्तराखंड ग्लेशियर के फटने की घटना के कुछ दिनों बाद अब जो जानकारी सामने आ रही है वो दिलचस्प होने के साथ डरावनी भी है. स्थानीय ग्रामीणों ने चिंता व्यक्त की है कि त्रासदी के प्लूटोनियम रेडियोधर्मी जिम्मेदार है जिसे 1965 में एक वर्गीकृत अभियान के दौरान नंदा देवी की चोटियों पर छोड़ दिया गया था.
तपोवन क्षेत्र के रानी गांव के लोगों के हवाले से एक रिपोर्ट में कहा गया है कि रविवार को जब ग्लेशियर टूटने के बाद नंदी देवी पर्वत से ऋषिगंगा नदी में गिरी और मलबे के लुढ़कने के बाद क्षेत्र में फ्लैश बाढ़ आई, तो उन्होंने एक तीखी गंध महसूस की.
एक अंग्रेजी अखबार ने एक स्थानीय निवासी के हवाले से कहा कि गंध से सांस लेना मुश्किल हो गया, कम से कम कुछ समय के लिए. निवासी ने कहा कि इस तरह की गंध को देखा जाना संभव नहीं है यदि केवल मलबे और बर्फ पहाड़ से ढीले टूट गए थे.
जुगजू गांव की देवेश्वरी देवी ने कहा, “इसने हमारे गांव में चिंता पैदा कर दी है कि लंबे समय से खोए हुए रेडियोधर्मी उपकरण घटना के पीछे हो सकते हैं. एक अन्य निवासी ने डिवाइस के ठिकाने का पता लगाने के लिए एक जांच कराने के लिए सरकार से आह्वान किया और यह भी विश्लेषण किया कि क्या ग्लेशियर फटने का कारण है.
1965 में क्या हुआ था?
1965 में भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) और यूनाइटेड स्टेट्स सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (CIA) द्वारा नंदा देवी पर्वत का एक संयुक्त अभियान चलाया गया था. अभियान को चीन की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए नंदा देवी के शिखर पर एक परमाणु-संचालित निगरानी उपकरण स्थापित करने का काम सौंपा गया था.
हालांकि, पर्वतारोहियों को बर्फानी तूफान में फंसने के बाद अभियान को बीच में ही रोकना पड़ा. टीम ने पहाड़ के आधार पर उपकरण छोड़ दिया और जान बचाने के लिए वापस लौट गई. टीम अगले साल वापस पहाड़ पर चली गई, लेकिन उपकरण को ट्रेस नहीं कर सकी, जिसमें परमाणु ईंधन ले जाने वाले विशेष कंटेनर में सात प्लूटोनियल कैप्सूल शामिल थे. माना जाता है कि इस उपकरण में 100 से अधिक वर्षों का जीवन था और पहाड़ पर बर्फ के नीचे दबे होने की आशंका थी.
‘उत्तराखंड आपदा के पीछे डिवाइस नहीं’
कैप्टन कोहली, जिन्होंने भारतीय नौसेना में सेवा की थी, ने कहा कि यह उपकरण ग्लेशियर के अंदर फंस सकता है और निष्क्रिय अवस्था में पड़ा होगा.डिवाइस अपने आप सक्रिय नहीं हो सकता है. उन्होंने कहा कि डिवाइस को सक्रिय करने के लिए डिवाइस के सभी घटकों को एक साथ काम करना होगा.हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि यह उपकरण गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों के परमाणु प्रदूषण का कारण बन सकता है.
अब, लोगों को चिंता के विषय में इस अभियान से जुड़े रहे कैप्टन एम एस कोहली का कहना है कि परमाणु उपकरण सहित उपकरण, “अपने आप में गर्मी को कम करने या उड़ाने की बहुत संभावना नहीं है”. दरअसल स्थानीय लोगों को डर है कि इलाके में फ्लैश फ्लड के लिए 1965 का वो अभियान ही जिम्मेदार है. कैप्टन कोहली ने कहा कि ऐसा कोई तरीका नहीं है कि खोया हुआ उपकरण अपने आप सक्रिय हो सकता है, भले ही परमाणु ईंधन ले जाने वाला विशेष कंटेनर क्षतिग्रस्त हो गया हो.