कुमाऊं अल्‍मोड़ा

इस बार नैनीताल में नहीं घूमेगा मां नंदा-सुनंदा का डोला, टीवी पर ही करने होंगे दर्शन

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मां नंदा-सुनंदा


नैनीताल| कोरोना वायरस ने दुनिया भर में बहुत सी चीज़ें बदल ही हैं, भक्ति प्रकट करने का तरीका भी इनमें से एक है. मंदिरों में दर्शन पर प्रतिबंध खुल गए हैं लेकिन धार्मिक यात्राओं को लेकर अभी ऐहतिहात बरती जा रही है. पहाड़ की कुलदेवी नंदा देवी के दर्शन श्रद्धालुओं को इस बार घर बैठे ही करने होंगे.

मन्दिर में भीड़ को कम करने के लिए इस बार नैनीताल में नंदा महोत्सव का लाइव प्रसारण किया जा रहा है ताकि लोग घर बैठे दर्शन कर सकें. इसके साथ ही जिला प्रशासन ने महोत्सव में रस्म अदायगी की व्यवस्थाओं के लिए 2 लाख की धनराशि को भी जारी कर दी है.

पहली बार डोला नहीं घूमेगा शहर
कोरोना संक्रमण के चलते इस बार नंदा महोत्सव को सिर्फ रस्म अदायगी तक ही किया जा रहा है. आयोजन समिति राम सेवक सभा को आयोजन की अनुमति सिर्फ कुछ लोगों के साथ दी गई है तो केन्द्र की गाइडलाइन्स के पालन के भी निर्देश जारी किए गए हैं.

कोरोना संक्रमण से बचने के लिए जारी दिशानिर्देशों के तहत मन्दिर में भीड़ को कम करना होगा तो मूर्ति को छूने की भी अनुमति नहीं होगी. साथ ही कुछ देर बाद सैनिटाइज़र का छिड़काव भी मन्दिर परिसर में करना होगा. प्रसाद बांटने पर पूरी तरह से रोक रहेगी तो कोरोना से बचाव के स्लोगन भी लगाने होंगे. इस बार नंदा सुनंदा के डोले के बाज़ार घूमाने पर भी प्रतिबंध लगाया गया है. इसके चलते मंदिर से ही झील में डोले का विसर्जन किया जाएगा.

पहाड़ की कुलदेवी है नंदा
बतादें कि नंदा चंद्रवंश की कुलदेवी है और पहाड़ में नंदा को राजराजेश्वरी का दर्ज प्राप्त है. हर साल यहां के लोग लाखों की संख्या में कैलाश विदा करने के लिये जाते हैं तो इस दौरान समूचा पहाड़ में अपनी बेटी बहू व कुलदेवी को गाजेबाजे के साथ विदा करते हैं. सिर्फ नैनीताल ही नहीं बल्कि अल्मोड़ा,चम्पावत हल्द्वानी उघमसिंह नगर समेत गढवाल में इस पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है.

क्यों पूजी जाती है नंदा
पहाड़ों में कदली यानि केले के पेड़ से बनाई जाने वाली इन मूर्तियों को हज़ारों लोग पूजते हैं. कहा जाता है कि चंद राजा की दो बहनें नंदा व सुनंदा एक बार जब देवी के मंदिर जा रही थीं तो एक राक्षस ने भैंसे का रूप धारण कर उनका पीछा करना शुरू कर दिया. इससे भयभीत होकर दोनों बहनें केले के वृक्ष के पत्तों के पीछे छुप गई.

तभी एक बकरे ने आकर केले के पत्तों को खा लिया जिससे भैंसे ने उन्हें देख लिया और दोनों बहनों को मार दिया. इसके बाद चंद राजाओं ने उनकी स्थापना कर देवी के रूप में उनकी पूजा शुरु की जो आज भी जारी है.

साभार-न्यूज़ 18

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