गर्मियों के मौसम में उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में फलों की बहार आ जाती है. पेड़ मौसमी फलों से लदना शुरू हो जाते हैं. काफल भी उन्हीं मौसमी फलों में से एक है. स्वाद और औषधीय गुणों से युक्त काफल से जुड़ी एक मार्मिक कहानी भी है जिसे उत्तराखंड में खूब गुनगुनाया जाता है.
मौजूदा सीजन में पहली बार काफल बाजार में पहुंच गया है. हालांकि जंगलों में आग लगने और समय से बारिश नहीं होने से काफल में रस की कमी जरूर है, लेकिन लोग इस नए फल को हाथों-हाथ ले रहे हैं. वर्तमान में काफल 300 रुपये किलोग्राम की दर से बिक रहा है. जबकि शुरुआती दौर में यह इक्का-दुक्का दुकानों पर ही नजर आ रहा है. यही नहीं, कीमत के चलते पहाड़ का ये फल इस वक्त सेब और अनार से महंगा है.
अगर स्वास्थ्य की बात करें तो काफल पेट के लिए काफी फायदेमंद बताया जाता है. इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, तो यह एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण शरीर के लिए बेहद फायदेमंद है. काफल का वैज्ञानिक नाम माइरिका एसकुलेंटा है. यही नहीं इसके निरंतर सेवन से कैंसर एवं स्ट्रोक जैसी बीमारियों का खतरा कम होता है. इसका पेड़ कहीं उगाया नहीं जाता बल्कि अपने आप उगता है. पहाड़ में तकरीबन एक महीने काफल बिकता है. यह फल स्थानीय लोगों के लिए रोजगार का साधन भी बनता है.
अप्रैल माह के आखिर में यह फल पक्कर तैयार हो जाता है. पहाड़ों में इन दिनों सड़क किनारे टोकरी में भरकर काफल बेचते बच्चे, बूढ़े, युवा और महिलाएं आसनी से नजर आ जाते हैं. वह प्रतिदिन 800 से 1200 रुपये के बीच कमा लेते हैं. इसी से उनके परिवार की इन दिनों आजीविका चल रही है. जबकि राज्य में आने वाले पर्यटकों के बीच भी यह फल बेहद लोकप्रिय है.
काफल से जुड़ी बेहद मार्मिक लोककथा
पहाड़ के एक गांव में एक गरीब महिला और उसकी छोटी सी बेटी रहती थी. वह महिला छोटे मोटे काम कर अपना गुजर बसर करती थी. एक बार गर्मी के मौसम में महिला जंगल से एक टोकरी काफल तोड़कर लाई और आंगन में रख दिए. साथ ही बेटी से बोली इनका ध्यान रखना और खेत में चली गई.
मासूम बच्ची पूरी ईमानदारी से काफलों की पहरेदारी करती रही. दोपहर में जब मां घर आई तो उसने देखा कि काफल की टोकरी में बहुत कम काफल बचे थे. मां ने देखा कि पास में बेटी सो रही है. थकी हारी मां को ये देखकर बेहद गुस्सा आ गया. उसे लगा कि मना करने के बावजूद उसकी बेटी ने काफल खा लिए हैं.
यही सोचकर अत्याधिक क्रोध में उसकी आंखें बंद हो गई और उसने अपनी छोटी सी बच्ची को जमकर पीटा. गर्मियों की धूप में बैठी भूखी प्यासी बच्ची अपनी मां की मार सहन नहीं कर पायी और उसके प्राण चले गए.
उधर, शाम होते-होते काफल की टोकरी फिर से पूरी भर गई. जब महिला की नजर टोकरी पर पड़ी तो उसे समझ में आया कि दिन की चटक धूप और गर्मी के कारण काफल मुरझा जाते हैं और शाम को ठंडी हवा लगते ही वह फिर ताजे हो गए. अब मां को अपनी गलती पर बेहद पछतावा हुआ और वह भी उसी पल सदमे से गुजर गई.
तब से लोककथाओं में कहते हैं कि वो दोनों मां-बेटी,चिड़िया बन गई और आज भी जब पहाड़ों में काफल पकते हैं तब बेटी रूपी चिड़िया कहती है ‘ काफल पाको मैं नि चाख्यो’ अर्थात काफल पक गए, मैंने नहीं चखे. उसका जवाब मां रूपी दूसरी चिड़िया देती है ‘पुर पुतई पुर पुर ‘ अर्थात पूरे हैं बेटी, पूरे हैं. पहाड़ में आज भी बड़े बुजुर्ग इस लोककथा के बारे में चर्चा करते हुए भावुक हो जाते हैं.