मेरी दादी की मौत हो गई. पापा भी कोरोना पॉजिटिव हैं और अस्पताल में एडमिट हैं.’ यह बताते हुए एक बच्चे को पिता की चिंता होती है. इन हालात में कई बच्चे जी रहे हैं. एक बेटा तो पिता की मौत के लिए खुद को जिम्मेदार समझता है. वह कहते हैं कि मैं बेकार हूं, अपने पिता के लिए ऑक्सिजन भी नहीं दिला पाया. मनोवैज्ञानिक असर इतना डरावना है कि कुछ बच्चे ऐसी घटनाओं को लेकर इंटरनेट पर सर्च कर रहे हैं कि पैरेंट्स की मौत हो जाएगी तो हम कैसे जिंदा रहेंगे? इंटरनेट पर यह भी सर्च किया जा रहा है कि जान गंवा चुके उनके पैरंट्स को उनकी आत्मा को शांति मिली होगी या नहीं. कुछ ऐसे हालात से इन दिनों कई बच्चे गुजर रहे हैं.
18 साल के एक स्कूली बच्चे को किसी पर विश्वास नहीं होता. वह भ्रम में रहता है. अपने भाई-बहन से भी बात नहीं करता है. दरअसल, कोविड की वजह से उसके माता-पिता दोनों की मौत हो गई है. इस हादसे के बाद वह इतना डर गया है कि वह किसी पर विश्वास नहीं कर पा रहा है. काउंसिल के बाद बच्चे में अब सुधार हो रहा है.
एक और बच्चे के पिता की कोविड से मौत हो गई. घर में मां और दो भाई हैं. पिता की मौत के बाद आर्थिक स्थिति खराब होने लगी है. बड़ा भाई अभी 12वीं में ही पढ़ रहा है और सिर्फ 17 साल का है. वह इन दिनों नौकरी की तलाश में है. पूरा परिवार सदमे के साथ आर्थिक तंगी से भी जूझ रहा है.
मनोवैज्ञानिक डॉक्टर रागिनी सिंह का कहना है कि इस महामारी ने सबसे ज्यादा बच्चों के जीवन को प्रभावित किया है. उन्होंने सब कुछ देखा है और झेला है. किसी के घर में कोरोना हुआ, दादी की मौत हो गई. माता-पिता एडमिट हैं. घर के लोगों अस्पताल में एडमिट करने, दवा के लिए भटकते हुए, ऑक्सिजन के भागदौड़ करते हुए देखा है. यह स्ट्रेस उनके मन से आसानी से नहीं जाता है.
यही नहीं, कई बार एक ही परिवार में पहले पिता की मौत, फिर माता की मौत होती है. डेड बॉडी घर आती है. बच्चे अचानक अनाथ हो जाते हैं. जिन बच्चों ने ऐसे माहौल को देखा है, उसके मन पर गहरा असर पड़ा है. वे स्ट्रेस और एंजायटी से पीड़ित हैं. मन में खुद की मौत डर और अंदेशा हो गया है. इसलिए, इन बच्चों के लिए यह बहुत ही नाजुक समय है. उन्हें सबसे ज्यादा अपने परिवार, रिश्तेदारों, दोस्तों, समाज और सरकार के सहयोग की जरूरत है.
सायकायट्रिस्ट डॉक्टर समीर पारिख का कहना है कि कहा कि पिछले डेढ़ साल से महामारी है. बच्चों के एग्जाम नहीं हो पा रहे हैं. कभी पड़ोसी, कभी रिश्तेदार, तो कभी अपने घर में कोविड की वजह से हो रही मौत को वह आए दिन देख रहे हैं. बच्चों का रूटीन बना रहना चाहिए, नहीं तो आगे इसका और नुकसान हो सकता है.
संयुक्त परिवार को उसके बारे में सोचना होगा. एकल परिवार के बच्चों को यह ज्यादा दिक्कत हो रही है, क्योंकि किसी की मौत के बाद उनके साथ कोई अपना खड़ा नहीं है, जिस पर वह विश्वास कर सके. हमारे समाज की सबसे बड़ी मजबूती संयुक्त परिवार है. ऐसे में परिवार और रिश्तेदारों का सबसे अहम योगदान है.
डॉ रागिनी ने कहा कि ऐसे बच्चों को इलाज की भी जरूरत होती है. इसलिए समय पर इलाज कराएं. कई बार केमिकल इनबैलेंस की वजह से होता है शुरू में कुछ दवा देनी पड़ती है और इसके बाद काउसंलिंग की जाती है. परिवार और रिश्तेदार के बाद स्कूल और पड़ोसी व दोस्त का अहम रोल आता है.
उसमें निगेटिव चीजों के बजाय पॉजिटिव चीजों को उभारना होगा. हौसला देना होगा. डॉ समीर ने कहा कि परिवार, पड़ोसी, आरडब्ल्यूए के बाद सरकार की जिम्मेदारी आती है. सोशल सपोर्ट सबसे अहम है. ऐसे बच्चों का खास ध्यान देना चाहिए. इकॉनमी सपोर्ट के बारे में सोचने की जरूरत है. काउंसिलिंग जारी रखनी चाहिए, ताकि बच्चों को यह समझाया जा सके कि जो हुआ वह महामारी थी, न कि आपकी गलती. समय के साथ सुधार होगा, लेकिन इसके लिए हर किसी को अपनी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी.
साभार-नवभारत