कण-कण में देवत्व के लिए प्रसिद्ध देवभूमि उत्तराखंड में कोटगाड़ी (कोकिला देवी) नाम की एक ऐसी देवी हैं, जिनके दरबार में कोर्ट सहित हर दर से मायूस हो चुके लोग आकर अथवा बिना आए, कहीं से भी उनका नाम लेकर न्याय की गुहार लगाते (स्थानीय भाषा में विरोधी के खिलाफ ‘घात’ डालते) हैं। कहते हैं कि माता कोटगाड़ी ‘कोट’ यानी कोर्ट में भी उद्घाटित न हो पाए न्याय को भी बाहर ‘गाड़’ यानी निकाल देती हैं। यानी जो फैसला कोर्ट में भी नहीं हो पाता, वह माता के दरबार में बिना दलील-वकील के हो जाता है।
विरोधी दोषी हुआ तो वह उसे बेहद कड़ी सजा देती हैं। दोषी ही नहीं उसके प्रियजनों, पशुओं की जान तक ले लेती हैं, लेकिन यदि फरियादी ही दोषी हो और किसी अन्य पर झूठा दोष या आरोप लगा रहा हो, तो उसकी भी खैर नहीं। वह स्वयं भी माता के कोप से बच नहीं सकता। इसलिए लोग बहुत सोच समझकर ही माता के दरबार में न्याय की गुहार लगाते हैं। और जब हर ओर से हार कर उनका नाम लेते हैं, तो उन्हें अवश्य ही न्याय मिलता है।
कोटगाड़ी माता का दरबार एक छोटे से मंदिर के रूप में उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद में प्रसिद्ध पर्यटक स्थल चौकोड़ी के करीब कोटमन्या तथा मुन्स्यारी मार्ग के एक पड़ाव थल से 17-17 किमी की दूरी पर पाखू नामक के स्थान के पास कोटगाड़ी नाम के एक गांव में स्थित है। स्थानीय लोगों के अनुसार कोटगाड़ी मूलत: जोशी जाति के ब्राह्मणों का गांव था।
एक दौर में माता कोटगाड़ी यहां स्वयं प्रकट हुई थीं और यहीं रहती थीं, तथा बोलती भी थीं। लिहाजा यह स्थान माता का शक्तिपीठ है। माता ने स्वयं स्थानीय वाशिंदों को पास के दशौली गांव के पाठक जाति के एक ब्राह्मण को यहां बुलाया था। कोटगाड़ी गांव के जोशी लोग माता के आदेश पर दशौली के एक पाठक पंडित को यहां लेकर आए, और उन्हें माता के मंदिर के दूसरी ओर के ‘मदीगांव” नाम के गांव में बसाया। इन्हीं पाठक पंडित परिवार को ही मंदिर में पूजा-पाठ कराने का अधिकार दिया गया।
वर्तमान में उन पाठक पंडित की करीब 10 पीढ़ियों के उपरांत करीब 28 परिवार हो चुके हैं। इस तथ्य से मंदिर की प्राचीनता का अंदाजा लगाया जा सकता है। पाठक परिवार के लोग ही मंदिर में पूजा कराने का अधिकार रखते हैं। स्वयं के आचरण तथा साफ-सफाई व शुद्धता का बहुत कड़ाई से पालन करते हैं। परिवार में नई संतति अथवा किसी के मौत होने जैसी अशुद्धता की स्थिति में पास के घांजरी गांव के लोगों को अपनी जगह पूजा कराने की जिम्मेदारी देते हैं।
लिहाजा एक परिवार के सदस्यों का करीब तीन से नौ माह में पूजा कराने का नंबर आता है। गांव के पास ही भंडारी ग्वल ज्यू का भी एक मंदिर है। कोटगाड़ी आने वाले लोगों के लिए भंडारी ग्वल ज्यू के मंदिर में भी शीष नवाना व खिचड़ी का प्रसाद चढ़ाना आवश्यक माना जाता है। कार्की लोग इस मंदिर के पुजारी होते हैं।
माता के बारे में मान्यता है कि वह यहां आए बिना भी पुकार सुन लेती हैं, और कड़ा न्याय करती हैं। इसी कारण माता पर न केवल लोगों का अटूट विश्वास वरन उनसे भय भी रहता है।
कुमाऊं मंडल में अनेक गांवों के लोगों ने कोटगाड़ी माता के नाम पर इस भय मिश्रित श्रद्धा का सदुपयोग वनों-पर्यावरण को बचाने के लिए भी किया है। गांवों के पास के वनों को माता को चढ़ा दिया गया है, जिसके बाद से कोई भी इन वनों से एक पौधा भी काटने की हिम्मत नहीं करता।
शाम ढलने के बाद कोटगाड़ी गांव के आमने-सामने की पहाड़ियां फन उठाए नागों की तरह नजर आती हैं। वैसे भी यह भूमि प्राचीन काल में नागों, नागराजों की भूमि बताई जाती है। यहां पास में बेरीनाग नाम का स्थान बेड़ीनाग का अपभ्रंश बताया जाता है, जबकि कोटगाड़ी मंदिर की ओर के पहाड़ पर काफी ऊंचाई में कालीनाग का तथा सामने के पहाड़ों में पिंगली नाग, धौलीनाग और कोटमन्या से आने वाले मार्ग पर लोहाथल के पास वासुकी नाग के मंदिर स्थित हैं।
एक दंत कथा के अनुसार जब भगवान श्रीकृष्ण ने बालपन में कालिया नाग का मर्दन करने के उपरांत कालिया व उसकी पत्नियों की अनुनय-विनय पर उन्हें कोटगाड़ी माता की शरण में भेजकर अभयदान प्रदान किया था। कालिया नाग का प्राचीन मंदिर कोटगाड़ी से थोड़ी ही दूर पर पर्वत की चोटी पर स्थित है। बताया जाता है कि इस मंदिर की चोटी से कभी भी गरुड़ आर पार नहीं जा सकते।
इस मंदिर की शक्ति पर किसी शस्त्र के वार का गहरा निसान स्पष्ट रुप से दिखाई देता है। एक किवदंती के अनुसार एक गाय इस शक्ति लिंग पर आकर अपना दूध स्वयं दुहा कर चली जाती थी। गाय की मालकिन गाय के दूध न देने से परेशान थी, एक दिन वह गाय के पीछे यहां पहुंची और अपनी गाय को अपना दूध वहां दुहाते देखकर उसने धारदार हथियार से उस शक्ति पर वार कर डाला।
इससे पाताल, स्वर्ग व पृथ्वी की ओर खून की तीन धारायें बह निकलीं। पृथ्वी पर खून की धारा प्रतीक स्वरुप आज भी यहां दिखती है। कहा जाता है कि यहां स्थित शक्ति लिंग पर स्थानीय श्रद्धालु दिन भर दूध-दही चढ़ाकर भर देते हैं, लेकिन सारा दूध-दही शीघ्र ही गायब हो जाता है। नाग पंचमी के दिन हर वर्ष यहां अवश्य ही वर्षा होती है। महिलाओं का इन नाग मंदिरों में एक सीमा से आगे जाना वर्जित होता है।
कोटगाड़ी मंदिर के पास अनेक जलधारे हैं, जिनसे सर्दियों में गर्म और गर्मियों मंे ठंडा पानी आता है, और हर मौसम में इनसे बिना परेशान हुए नहाया जा सकता है। धारों के ऊपर कहीं जल श्रोत नहीं दिखते। कहते हैं कि प्रतिदिन ब्रह्म मूहूर्त में माता कोकिला इन्हीं जल धारों में स्नान करने आती हैं। अनेक सच्चे श्रद्वालुओं को अक्सर इस समय माता के वाहन शेर के दर्शन होते हैं। कुंड में अनेक बार नागों के दर्शन भी होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट की मान्यता लिये है कोटगाड़ी देवी का दरबार
कोटगाडी देवी का दरबार सुप्रीम कोर्ट की मान्यता लिये है, ऐसा कहना अतिशयोक्ति न होगा। नाम लेने अथवा डाक द्वारा भी मंदिर के नाम पर पत्र भेजने मात्र से कोटगाड़ी देवी पुकार सुन लेती हैं, और सच्चा न्याय करते हुए चमत्कार दिखाती हैं। इनके शरणागत सब प्रकार से मनोंवाछित फल प्राप्त करते हैं। इनके बारे में एक दंत कथा भी काफी प्रसिद्ध है कि माता के प्रभाव से आजादी के पूर्व अग्रेजों के शासन काल में एक जज ने जटिल यात्रा कर यहां पहुंचकर क्षमा याचना की।
इसके पीछे कारण बताया जाता है कि क्षेत्र के एक निर्दोष व्यक्ति को जब अदालत से भी न्याय नही मिला तो सामाजिक दंश से आहत होकर स्वंय को निर्दोश साबित करने के लिए उसने करुण पुकार के साथ भगवती कोटगाडी के चरणों में विनती की। भक्त की विनती के फलस्वरुप चमत्कारिक घटना के साथ कुछ समय के बाद जज ने यहां पहुचकर उसे निर्दोष बताया। इस तरह के एक नही सैकडो चमत्कार देवी के इस दरबार से जुड़े हुए हैं।
जनश्रुति के अनुसार जब सभी देवता कुछ विशेश परिस्थितियों में स्वयं को न्याय देने व फल प्रदान करने में असमर्थ मानते है, तो ऐसी स्थिति में कोकिला कोटगाडी देवी तत्काल न्याय देने को तत्पर रहती है, हिमालय के देवी शक्ति पीठों में कोकिला माता का महात्म्य सबसे निराला है, सिद्धि की अभिलाशा रखने वाले तथा ऐश्वर्य की कामना करने वाले लोगों के लिए भी यह स्थान त्वरित फलदायक है। देवी के उपासक इन्हें विश्वेश्वरी, चन्दि्रका, कोटवी, सुगन्धा, परमेश्वरी, चण्डिका, वन्दनीया, सरस्वती, अभया प्रचण्डा, देवमाता, नागमाता, प्रभा आदि अनेक नामों से भी पुकारते है।