सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि बाल विवाह की समस्या से निपटने के लिए एक व्यापक और अंतरविषयक दृष्टिकोण की आवश्यकता है. कोर्ट ने जोर दिया कि बाल विवाह केवल एक कानूनी मुद्दा नहीं है, बल्कि इसके सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहलू भी हैं. इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, जागरूकता और सामाजिक कल्याण के विभिन्न क्षेत्रों को शामिल करना आवश्यक है. कोर्ट ने इस समस्या का समाधान करने के लिए सभी संबंधित क्षेत्रों में समन्वय और प्रयासों को आवश्यक बताया है, ताकि बाल विवाह के दुष्प्रभावों को प्रभावी ढंग से समाप्त किया जा सके.
सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाह पर गाइडलाइन जारी कर कहा है कि बाल विवाह रोकथाम अधिनियम को किसी भी व्यक्तिगत कानून के तहत परंपराओं से बाधित नहीं किया जा सकता है. एक एनजीओ की ओर से दायर याचिका में आरोप लगाया है कि राज्यों के स्तर पर बाल विवाह निषेध अधिनियम का सही तरह से अमल नहीं हो पा रहा है, जिसके चलते बाल विवाह के मामले बढ़ रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाद पर गाइडलाइन जारी करते हुए कहा, ‘माता-पिता द्वारा अपनी नाबालिग बेटियों या बेटों की बालिग होने के बाद शादी कराने के लिए सगाई करना नाबालिगों की जीवन साथी चुनने की स्वतंत्र इच्छा का उल्लंघन है.’ देश भर में बाल विवाह पर रोक से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला सुनाया है. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा था कि राज्यों से बातचीत कर ये बताये कि बाल विवाह पर रोक लगाने के कानून पर प्रभावी अमल के लिए उसकी ओर से क्या कदम उठाए गए हैं?
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ फैसला सुनाते हुए कहा, ‘दंड और अभियोजन के बजाय निषेध और रोकथाम पर जोर दिया जाना चाहिए. हमने कानून और समाजशास्त्रीय विश्लेषण के पूरे दायरे को देखा है. हमने बाल विवाह निषेध अधिनियम के उचित क्रियान्वयन के लिए विभिन्न निर्देश दिए हैं. सबसे अच्छा तरीका वंचित वर्गों, शिक्षा की कमी, गरीबी से ग्रस्त लड़कियों की काउंसलिंग करना है. एक बड़े सामाजिक ढांचे से मुद्दे को संबोधित करें. दंड का ध्यान नुकसान आधारित दृष्टिकोण पर है जो अप्रभावी साबित हुआ है. जागरूकता अभियान, फंडिंग अभियान, आदि ऐसे क्षेत्र हैं जहां दिशानिर्देश जारी किए गए हैं.